मैं और ख़्वाब
मैं देख रहा हूँ खिड़की से लटकते इन सारे अधूरे अजनबी ख़्वाबों को, ये सपने जो कभी मेरे नहीं रहे ये लोग जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा, अचानक से किसी रोज़ आएँगे मेरे शहर और माँगेगे अपनी हक़ीक़त के सवालों के जवाब; मैं रहूँगा उसी तरह ख़ामोश जिस तरह अपने ख़्वाब के खोने पर हो जाता हूँ, तब मैं याद करुँगा वो सारे क़िस्से, जो ख़्वाब को फिर देखने के लिए सुनाए थे मैंने ख़ुद को पास बैठाकर। मैं नहीं जानता कि कोई क्या चाहता है मुझसे, मैं जानता हूँ केवल इतना ही कि ढूँढ लेगी मेरी राहें हर उस पल को, हर उस शख़्स को, जहाँ तक मुझे पहुँचना लिखा है। - कमलेश