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मेरे गुलशन का नायाब गुलाब तुम हो

मेरे गुलशन का इक नायाब गुलाब तुम हो, देखता ही रहूँ जिसको वो ख्वाब तुम हो । गुज़रता है वक़्त तो इसे गुज़रने दिया जाए, जहाँ मैं ठहर जाऊं इसमें वो मुकाम तुम हो । अंधेरे से भरी उन तमाम गलियों के भीतर, जुगनू की तरहा आने वाली आस तुम हो । मेहनतकश लोगों की इस अदद काॅलोनी में, मेरी जिंदगीभर का समूचा हासिल तुम हो । जिससे सृष्टि का हर कण सृजित हो जाए, ब्रह्मांड-सृजन का वो अतुल्य ज्ञान तुम हो । सीलन-घुटन-मायूसी-उदासी सब महका दे, मस्तानी हवाओं की वो मधुर बहार तुम हो। चाहे बैठ जाए दुनिया छाती पर चढ़कर मेरे, पलक झपकते ही उबार ले वो मीत तुम हो ।                                                                                  .....कमलेश.....

अंतर और रिश्ते

रिश्तों का कोई नाम नहीं होता ना ही कोई नागरिकता भी ये वैसे ही काम करते हैं, जैसे कि साइबेरिया के पंछी चले आते हैं हिंदुस्तान बिना कोई वीज़ा लिए । कुछ कमजोरियों औ' ताकत के दरमियान भी होता है एक रिश्ता जो चाह रखता है कि ताकत प्यार से थपथपाए कमजोरियों की पीठ, ताकि बना रहे ठहराव बीज और उपज के बीच । मायने ठहराव के केवल कमजोरियों को समझ आते हैं, ताकत तो उसका प्रतिबिंब है जो संचालित करने का जिम्मा सौंप देती है कमजोरी को, उनके अंतर का रिश्ता । अगर नहीं ही उपजे कोई भी चाह किसी भी तरह के रिश्ते के दरमियान, ना ही उम्मीद रहे किसी ठहराव के होने की, तब शायद सफ़र हो शुरू रिश्तों में इच्छाओं से अपेक्षाहीनता की ओर ; फिर नागरिकता, रिश्ते, वीज़ा और साइबेरिया के पंछियों में अंतर स्वतः समाप्त हो जाएगा ।                                   .....कमलेश.....

फूल

माना कि इस देश में कीचड़ है, और कीचड़ में कमल खिलता है, लेकिन एक सीमित अवधि तक; कमल के सिरे ने अब फड़फड़ाना शुरू किया है उसे आभास हो चला है कि जड़ें सड़ांध मारने लगी है, लेकिन मृत्यु से पहले तड़पने का हक़ इसका भी तो है । धूल तक की हैसियत नहीं जिनकी, वो कहते हैं कि फूल देश का बाप है, अरे हूक्मरानों कबूल करो, के गांधी के बिना इस देश का वजूद ही नहीं ।                                .....कमलेश.....

अच्छा लगता है मुझे

तेरा मुस्कुराना मेरी बातों पे, नज़रें फेर लेना मेरे इशारों पे, झुका लेना गर्दन मेरे सवालों पे, अच्छा लगता है मुझे । तेरा खामोश हो जाना फ़ोन पर, मायूस हो जाना बिछड़ने पर, शरमा जाना मेरी हसरतों पर, अच्छा लगता है मुझे । तेरा इस क़दर मुझको चाहना, मेरी ख्वाहिशों का ख्याल रखना, काँपते हाथों को मेरे यूँ थामना, अच्छा लगता है मुझे । तेरा भीग जाना मेरी यादों में, रूठ जाना झूठी शिकायतों से, फिर मान जाना चंद पलों में, अच्छा लगता है मुझे ।                          .....कमलेश.....

ख़त

अपनी प्रेयसी के लिए ना जाने किस तरह खुद का कलेजा निकालकर रखता है, एक प्रेमी खुद के टुकड़ों को समेटकर, उसे ख़त लिखता है । एहसासों की फेहरिस्त बनाए नहीं बन पाती, कुछ बंदिशें अल्फाज लगाते हैं उसकी आरजुओं के आगे, फिर भी बिखेरकर अरमानों को वह उसे ख़त लिखता है । ख़त में सिमटे होते हैं कुछ आँसू, कुछ वादे, कुछ यादें, कुछ सिलसिले, जिनको लिखने की कभी उसकी हिम्मत नहीं होती, फिर भी ख़त इनको सहेजता है ; कुछ ख़त, ख़त खुद भी लिखता है ।                          .....कमलेश.....

जागना

कल रात वो जागा था, पसीने से लथपथ आँखो में लाली और कंपकंपाते होंठ, मैंने पूछा कारण तो कहने लगा वही बहाने जो हमेशा से सुने हैं मैंने । ये दुनिया अभी सो रही है, सब को एक साज़िश के तहत गहरी नींद सुलाया गया है । जो जाग पड़ता है उसे नहीं पता होता कारण, अनायास ही इस तरह अपनी नींद के टूट जाने का । जो लोग किंतु मुश्किलों से ढूंढ लेते हैं, कारण नींद के खुलने का उनके लिए फिर एक गहरी साज़िश इंतज़ार कर रही होती है । अगर नहीं बच पाया कोई जो बिना जगाए जागा था, तो महाभारत का अंत, अर्जुन नहीं कोई दुर्योधन लिख देगा अपने गुनाहों भरे हाथों से, जिसमें कोई अंक नहीं होगा ।                               .....कमलेश.....

पहला चुम्बन

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        Source - shutterstock.com  कुछ बातें वैसे ही याद रह जाती है जैसे किसी अच्छी होटल का खाना । बात अगर कही जाए तो दो लफ्ज़ में कही जा सकती है लेकिन बिना बेक ग्राउंड के उसे समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । आयुष बिना कुछ सोचे समझे अपने कंधे पर एक बैग लादे, सितारा बस में चढ़ा । सारे रास्ते पूराने ख्यालों के पुलिंदे पलटता रहा जो उसे हर लाइन पर मुस्कुराने के लिए बाध्य कर रहे थे । पांच बजकर बीस मिनट पर आयुष नाका नम्बर पांच पर अपने सामान को थामे उतरा । निकट ही के एक रिश्तेदार के घर जाकर जो कि नाके की बगल वाली गली में था वहाँ अपना सामान रख दिया और मोबाइल में अपनी बर्थ की करेंट स्टेटस चेक करने के बाद फिर बाहर सड़क पर घुमने के लिए निकल गया ।                     घूमते हुए जब वह चौराहे पर पहुंचा तो उसे याद आया कि शिवानी की कोचिंग क्लासेस इसी एरिया में पड़ती है । करीब पौने छः बजे तक वह ऐसे ही टहलता रहा मानो उसे किसी का इंतज़ार हो । उस चौराहे पर गुजरने वाली गाड़ियों की गिनती वह ऐसे करता रहा जैसे कोई बच्चा आसमान के तारे गिना करता है । लगभग लगभग सारे ही नम्बर और अजनबी चेहरों को देखते देख

रंग और प्रतिबिंब

तुम्हारे दूर चले जाने के बाद  रात नहीं ढलती है ना ही सुबह होती है,  दिन तो होता है लेकिन वह केवल, रात का बदला हुआ रंग है । बदलती रात और बदलता रंग कोई उम्मीद नहीं, सिर्फ मौन और एक दर्पण ; जिसमें भी अपनी ही आँखो का एक, अपरिचित प्रतिबिंब दिखता है । तुम्हारे लौट आने से, रात के बदलते रंग के साथ रंग बदल जाए शायद, दर्पण में दिखने वाले प्रतिबिंब का भी ।                                     .....कमलेश.....

गुज़रना

मेट्रो स्टेशन पर बस का इंतज़ार करते हुए, मेट्रो के गुज़र जाने का गुमान नहीं होता । गुज़रना इंतज़ार का और तुम्हारा बिलकुल ही अलग-अलग होगा मेरे लिए, लेकिन सपनों के गुज़रने और जिंदगी के गुज़र जाने में अनगिनत समानताएं होंगी । तुम चाहो कभी मुझसे कुछ भी तो मैं केवल इतना ही चाहूँगा कि गुज़रो कभी तो ऐसे गुज़रना जैसे चुनावी वादा गुज़रता है ।                           .....कमलेश.....

ग़ुलामियत का कक्ष

हम सब जड़ हो चुके हैं और देख रहे हैं अपलक उस श्वेतपत की ओर, जंहा आजाद है कुछ काले वर्ण, जो हमें अपना ग़ुलाम बनाए हुए हैं हमारी सोच भी सिमट चुकी है अब उन्हीं के इर्द-गिर्द ही |   कमरे में खिड़की तो है लेकिन दृश्य के लिए ना कि दर्शन को, विचारों को तो बंदी बना चूका है वो उपाधिधारक, जिसके समक्ष हमारी सोच कठपुतली बनी हुई है | और हम सब झुझ रहें हैं, एक अदृश्य युद्ध से जो छिड़ा है हमारी आवाज़ और सोच के बीच | मजबूर हैं वे लोग जिन्हें किताबों ने कैद कर लिया है, कुछ नज़र नहीं आ रहा है उन्हें ऐसे ही वे अंधे ठोकर खाकर मार दिए जायेंगे |   सहसा मुझे दिखाई पड़ता है वह मजबूर वृक्ष, जो हाथ जोड़े खड़ा था मानव के समक्ष, फिर भी उसकी सांसें थामकर इस कक्ष को आकार दिया गया है |   मैं अब चाहता हूँ कि किताब के पीछे की मासूमियत को पहचाना जाये, ढूंढ लिया जाये वो दर्द जो अब तक अनदेखा किया गया विचारों की पराधीनता के चलते, उतार दिया जाये वो असहनीय बोझ, जिसको हम सब     अकारण ही ढोते चले आ

तुम और वेदांत दर्शन .....

तुम मेरे वेदांत दर्शन का, वह मूल प्रश्न हो जिसका उत्तर जानने पर, मैं समूचे ब्रम्हांड को जान सकूंगा । तुम सच्चिदानंद की वह अवस्था हो, जिसमें खुद को खोकर मैं सब कुछ पा सकता हूँ । तुम उस संसार का स्वरुप हो, जिसमें आत्मा एक जीवन का उत्सर्ग करने के बाद, दूसरे का इंतजार कर रही होती है । तुम वेदांत दर्शन में उल्लेखित वह आत्म-साक्षात्कार हो, जिसके मिल जाने से मृत्यु से पूर्व ही मोक्ष मिल जाता है । मेरी या तुम्हारी तरह प्रेम भी सबके वश में है, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं  कि सबके सब प्रेमी हो जायें ।                               .....कमलेश.....

ख़ामोश

जुबान तुम्हारी काटना किसी के बस का नहीं, मगर फिर भी तुम चुपचाप तमाशा देखते हो । यह जो आजकल बहुत बोलता है ना, एक रात यही कतर जाएगा तुम्हारे कान; और फिर तुम सब ख़ामोश हो जाओगे ।                                                           .....कमलेश.....

कुछ तुमने कुछ मैंने ...

दर्द के किस्से सुनाए कुछ तुमने कुछ मैंने, फिर सिसकियाँ सुनी कुछ तुमने कुछ मैंने । सारी तकलीफों की नुमाइशें करते करते, कई आँसू भी गिराए कुछ तुमने कुछ मैंने । देखा जब ज़ख्मों का लबादा इक दूजे पर, तब मरहम भी लगाया कुछ तुमने कुछ मैंने । दूरियों का ज़हर पीते रहे इतने वक्त से हम, रात भर अमृत ही पीया कुछ तुमने कुछ मैंने । लरज़ते होंठो पर सुखा पड़ा जब लफ्जों का, तब प्रेम को बरसाया कुछ तुमने कुछ मैंने । जिस्मों की आरजू के अनायास मिट जाने पर, रुह को ढूंढने की कोशिश की कुछ तुमने कुछ मैंने । बेड़ियों को तोड़ दिया हमने इस मुलाकात में, परिभाषा बदली इश्क की कुछ तुमने कुछ मैंने । जाने कितनी दफ़ा बिखरे इक रात में हम, लेकिन समेटा खुद को कुछ तुमने कुछ मैंने । कितने ही लम्हें बिताए थे मिलकर  हमने, फिर याद बना लिए कुछ तुमने कुछ मैंने ।।                                         .....कमलेश.....                                       

उम्मीद

एक उम्मीद जब वह दिखे, तुमको किसी मासूम की आँखों में, तो कोशिश करना कि तुम उसे हौसला दे सको । दिख जाए तुम्हें जब वह, किसी के लाचार चेहरे पर चाह रखना कि तुम, मान रख सको उसका । इस तरह दूसरों की ख्वाहिश को महज़ तवज्जो देकर, मैं तुमसे खुश हो जाऊंगा जब तुम खोज लोगे ऐसी ही एक उम्मीद लेकिन खुद में, जो ऐसी हो कि परिभाषा के विपरीत बिना टूटे पूरी हो जाए ।                           .....कमलेश.....                          

पाँच कवितायें

1. हिंदी - वर्तमान समय में मातृभाषा हिंदी के हालात को देखते हुए, ऐसा लगता है कि हमारी भाषा को अब एक अदरक वाली, कड़क चाय की ज़रूरत है ।                           2. तीन, दो, पाँच - पिछले कुछ समय से, ऐसा लगता है कि ज़माना और मैं, तीन, दो, पाँच खेल रहे हैं । हर बार मैं अपना सेट पूरा करता हूँ, फिर भी कुछ ना कुछ उधारी, ज़माने की बाकी रह ही जाती है ।                                  3. गुनाह - गुनहगार वे लोग नहीं है जो किसी को धोखा देते हैं, उन्हें पिला दी गई होगी, सिर्फ एक बेस्वाद चाय ।                    4. तुम - कुछ दिन दूरी पर रह जाने से तेरे, हो गया है फिर इश्क मुझे, लेकिन इस बार चाय से । परिभाषा लेकिन अब भी वही है इश्क की ''तुम''।                     5. दुनिया - सोने के बाद जागने से पहले दुनिया मेरी, तुम होती हो केवल । अकस्मात मधुर स्वर तुम्हारे प्रेम का भेद कर मेरे स्वप्न को, खींच लेता है फिर से हकीकत में, अकिंचन होकर भी जहाँ तृप्त हो जाता हूँ मैं ।                    .....कमलेश.....

प्रतिक्रिया

तुम सब चाय को और अच्छा बनाने के लिए, नमक का प्रयोग करते हो, मैं नहीं करता । किसी के घाव पर नमक छिड़कना, अच्छी बात नहीं है । चाय का ऊबलना एक दर्द भरी प्रकिया है, और तुम नमक डालकर कर, व्यक्त कर रहे हो, प्रतिक्रिया उस प्रकिया पर । प्रतिक्रिया व्यक्त करना, किसी चाय के ऊबलने की प्रक्रिया में, खलल डालने के समान है ।                                       .....कमलेश.....                                      

रोशन चेहरों की आँखों में

रोशन चेहरों की आँखों में भी, एक रात दिखाई देती है । इन सन्नाटों में भी अक्सर, मुझको आवाज सुनाई देती है ।। हर खामी का ठीकरा तु, दूसरों के सर पर ही फोड़ता है । इल्जाम लगाने के तेरे अंदाज में, साजिश दिखाई देती है ।। दर्द इतना गहरा हो चूका है, ज़माने की इन खरोंचों का । देख कर जख़्म लोगों के, बदलियाँ भी आँसू बहा देती है ।। इतने ज्यादा आश्वासन और वादे, किसी की भूख मिटा भी दें । लेकिन बेमुरव्वत मुफ़लिसी, आखिर सर उठा ही लेती है ।। तु कितने भी तरीके अपना, औ' प्रतिभावान को वंचित कर । कला है यह कलाकार की, अपने झंडे तो गाड़ ही देती है ।। वक्त रहते भी अगर कोई, कुछ मसले हल ना कर पाए । तो आवेश में आकर खुद, किस्मत ही खेल बिगाड़ देती है ।।                                                   .....कमलेश.....

मैं

मैं वह नहीं, जिसके साथ तुम बाँट सको अपने ग़म, जिसको दिखा दो तुम गुज़रे हुए पल । मैं वह भी नहीं, जिससे तुम : उम्मीद रखो कि मैं तुम्हारी उम्मीदें पूरी करुंगा, जिस पर तुम्हें गर्व हो और तुम कहो कि मैं तुम्हारा फलाना लगता हूँ । मैं वह हूँ ही नहीं, जिसको तुम समझा पाओ तुम्हारे जीने के तरीके, जिसे मना सको तुम एक दफा रुठ जाने के बाद । मैं वह भी नहीं, तुम कह दो जिसे अपने दिल का हाल, माँगने का हक हो तुम्हें दो पल का साथ । मैं कदाचित् वह नहीं, जिसकी आजादी छीनकर तुम यह सोचने लगो कि, तुम कतर चूके हो पंख मेरे; याद रखो पंखों को जंग नहीं लगती । मैं वह नहीं, तुम बिठा सको जिसे अपने खुशरंग जीवन में, जिसे सुना सको तुम दुनिया भर के किस्से ।   जो तुम्हारी भाषा नहीं बोलता जो तुम्हारे दिमाग नहीं पढ़ता, जो तुमसे एक निश्चित दूरी पर रहता है, जो तुम्हें देखता ही नहीं, सिर्फ और सिर्फ वह ही हूँ मैं केवल मैं ।                        .....कमलेश.....

सच्चाई

मैंने देखी ग्यारह साल की ढोलक, और छः साल की बेक फ्लीप । ऐसा लगा कि जाकिर साहब और टाइगर श्राॅफ ने, व्यर्थ ही कर दिया जिंदगी को क्योंकि यह दोनों पूरी दुनिया को प्रशिक्षण दे सकते हैं । उसकी हर थाप में सुनाई देती है असंख्य संभावनाएं, और हर बेक फ्लीप ने दर्शन करवाया सारे खेलों का । मैं बस में था फिर भी, मेरे रास्ते खुले हुए थे ; वह थे चौराहे पर लेकिन सारे रास्ते बंद ।                 .....कमलेश.....

रात की खूबसूरती

रात की खूबसूरती में कुछ खोटा लगता है, तारों   की  आँख से  कुछ  टूटा लगता है । सूरज उगता तो है तेरी यादें साथ लेकर, मगर शाम को ढलने से मुकरने लगता है । होंठो पर ग़ज़लें तो है गुनगुनाने को मगर, बिन तेरे मतला ही मुझे अधूरा लगता है । बीती यादें और खुशियाँ  मुँह  चिढ़ाती है, तन्हाइयों का मेरे शहर जब मेला लगता है । तड़प रही है बाहर आने के लिए अब नज़्में, लेकिन कलम और दिल का झगड़ा लगता है । जुदा हो गया मुझसे तेरे साथ गुज़रा वक्त भी, तेरे साथ  ही  फिर  वापस आएगा  लगता है ।                                            .....कमलेश.....

पूछना

तुम्हारा यह सवाल करना कि तुम कवितायेँ कैसे लिखते हो ? उतना ही स्वाभाविक है जितना कि तुम्हारा, एक गोलगप्पे वाले से पूछ लेना कि कैसे वो इतने अच्छे गोलगप्पे बनाता है ? इस सवाल का जवाब भी, उतना ही सरल है जितना कि तुम्हारा इस सवाल को पूछना कि कवितायेँ कैसे लिखते हो ?  जब तुम इन सवालों की सरलता में उलझकर, फिर सवाल कर बैठते हो कि क्या कवि हमेशा सच कहता है ? यह पूछना उतना ही तर्कहीन है जितना कि सुबह सुबह, दूधवाले से यह प्रश्न करना क्या दूध में पानी मिलाया गया है ? दूध का दूध और पानी का पानी सोचते समय, तुम फिर पूछ जाते हो कि क्या कविता सोचकर लिखी जाती है ? यह संशय उतना ही अर्थहीन साबित होता है जितना कि एक प्रेमी का, प्रेमिका को चूमने से ठीक पहले, इस बात को सोचना कि चुम्बन कैसे होता है ?                       .....कमलेश.....

कविता

कुछ चेहरों को सच दिखाने पर, लोगों की आईने से लड़ाई हुई है । दरिया में डूब जाने पर मेरे, शहरों में महफिल सजाई हुई है । संभल कर रास्तों पर कदम रखना, बारुद जमाने ने शिद्दत से बिछाई हुई है । जिंदगी तो है बस जन्म से मृत्यु ही, जन्नत की अफवाह वैसे ही फैलाई हुई है । खिलौने गुम हो गए भागते भागते, जिंदगी बस खेल के लिए बनाई हुई है । उम्र पर बंदिशें मत लगाइए साहब, सुना है बच्चे की अर्थी सजाई हुई है ।                               .....कमलेश.....

नदी और समंदर

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Source-YouTube  सालों-साल के अपने बर्फीले आँगन को छोड़कर, वो चल पड़ती है हरियाली साड़ी ओढ़े, चाँदनी का आलेप लगाए, चट्टानों का सुनहरा गहना पहने, मछलियों का काजल आँजे, फूलों की लाली अपने अधरों पर सजाकर, कल कल करती पाजेब पहनकर, हर पड़ाव पर प्रेम बिखेरती हुई, अपने प्रियतम के आँगन पहुंच जाती है, अपने पिता पर्वत को विस्मृत कर, तब सूर्योदय की लालिमा से अपनी प्रेयसी की मांग भरकर, वह उसे अपने आगोश में समेट लेता है, और इस तरह नदी समंदर में मिल जाती है ।                                  .....कमलेश.....

फिर मैं कविता लिखता हूँ ।

इन अंधियारों के बाहर जाकर मैं अंधियारों में झांकता हूँ, उन दरवाजों के भीतर जाकर मैं दरवाजों में देखता हूँ, तुम जो चाह रहे हो सुनना कभी ना तुमसे कहता हूँ, निकलकर खुद से बाहर फिर मैं कविता लिखता हूँ | टूटे हुए को जोड़कर फिर नए सिरे से चुनता हूँ, समेटकर बिखरे हुए इंसान   नित नए खिलोनें बुनता हूँ, जिनको कर दिया है विलुप्त तुमने बच्चों के बचपन से, छीन लिया जिनको तुमने अपने वजूद के सपनों से, मत ग्रास करों यूँ इनको एक बच्चा बन यह कहता हूँ, पाकर सब कुछ खो देता जब फिर मैं कविता लिखता हूँ | तुमको वाजिब लगता है यूँ उठाना सवाल मेरे शब्दों पर, पूछता हूँ मैंने कब कहे हैं कोई शब्द ही अपने कथनों में, बन चूके ग़ुलाम तुम औरों के इस क़दर के खुद को भूल गए, ना देख पाए आईना भी तुम फिर मुरझाये से फूल हुए, अब भी नहीं कहता हूँ तुमसे बस खुद को यह समझाता हूँ, जुड़ जाता हूँ बिखरकर जब फिर मैं कविता लिखता हूँ |                                 .....कमलेश.....    

बचकानी हरकतें ..........

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Source- We Heart It जब आमजन काम पर निकल चूके होते, सड़कों पर शोरगुल मच रहा होता और सूरज चाचा गुस्सा होने लगते तब कहीं माँ की डाँट और भाईयों के उलाहने सुनकर आशु उठता । बारह बजे अपने घर की बालकनी पर बैठकर नाश्ता करते वक्त उसकी अँगुलियाँ वाटस्एप और फेसबुक पर मार्निंग वाॅक कर रही होती । लेकिन आज मार्निंग वाॅक में खलल पड़ा गली से आती एक प्यारी लेकिन गुस्से भरी आवाज से, एक लड़की जो पास खड़े आॅटो वाले को डाँट रही थी कारण पता नहीं । आशु की निगाह गली में गई तो थी किंतु लौटी नहीं, नज़र चुपचाप उस पीले सूट वाली लड़की के पीछे हो ली जो अब अपनी लटों को चेहरे से हटाकर कानों के पीछे धकेल कर अपने रास्ते पर चल पड़ी थी । अगले दिन आशु थोड़ा वक़्त पर उठकर नाश्ता कर रहा था, लेकिन आज उस बैचेनी में इंतज़ार छुपा हुआ था । कुछ देर बाद वह दिखी एक सात साल के बच्चे के साथ, उसका बस्ता हाथ में लिए और नीले सूट में, अपने होठों पर मुस्कराहट बिखेरती हुई वो उस बच्चे को स्कूल से लेकर घर वापस लौट गई । आशु ने पड़ताल की तो पता चला कि स्कूल ७ से १२ तक चलता है, दो दफ़ा अनजानी सुरत देखने के बाद मचला हुआ दिल प्रत्यक्ष रुप से मिलना चाह

सवाल

मेरे साथ राहों पर घूमते हुए, मेरी साँसों के चलने की वजह बनते हुए, एक सवाल तुमने जो पूछ लिया था मुझसे कि कहाँ तक जाना चाहता हूँ तुम्हारे साथ  ? मैं वहाँ जाना चाहता हूँ, जहाँ तुम अपनी धड़कन खुद सुन सको । जहाँ तुम मेरे दिल को सहूलियत से पढ़ सको । मैं वहाँ जाना चाहता हूँ, जहाँ मैं तेरी जुल्फों में अपना होश भूला सकूँ । जहाँ मैं तेरे आँचल में अपनी जिंदगी बिता सकूँ । मैं वहाँ जाना चाहता हूँ, जहाँ हम प्रेम की नई इबारत को लिख सकें । जहाँ हम भूलकर सब कुछ इक दूजे में खो सकें ।                                            .....कमलेश.....

एहसास

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Source - Google मैं जमाने की भीड़ से बेखबर तेरे इंतजार में खड़ा हूँ, सोते जागते हर पल को बेकरार होकर खड़ा हूँ, नही चाहता कि मुझे तेरे सिवा कोई और चाहे, नही पसंद है कि मेरे सिवा तुझे देखे किसी की निगाहे, इक बारिश मुकम्मल हो तेरी मेरी मोहब्बत के लिए, कुछ हसरत अधूरी रहे इक दूजे की तड़प के लिए, मददगार लगता है मुझको यूँ अकेले बारिश में भीगना, बूंदो के छूने मे है वो आनंद जैसे तुम्हारे लबों को चूमना ।                                                     .....कमलेश.....