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ज़िंदगी

मैंने देखा एकटक आसमान को, तो एक सितारा उतरकर मेरे साथ चलने लगा। रास्ते में मिल गई थी कुछ परछाईयाँ, ठहरा वहाँ तो वो रिश्ते बनकर साथ आ गईं। पलकों पर रहते थे कुछ जज़्बात हर पल, अब वो छूने पर गिरने लग जाया करते हैं। हाथ ढूँढ रहे हैं किसी की हकीक़त को, जिसके पीछे जाने पर वो ख़्वाब पाते हैं। रखे हुए हैं कुछ ख़त किताबों के बीच, जिन्हें इंतज़ार है अपने पतों पर जाने का। ज़िन्दगी से आख़िरकार मुलाक़ात हुई कल, अब मैं आईने के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा हूँ। एक पेड़ खड़ा हुआ था बरसों से बाग में, कल एक बच्चे ने जाकर उसको गले लगा लिया।                                                        - कमलेश

शहर

कोई भूलता नहीं अब रास्ते यहाँ सो भटकने की गुंजाइशें कम हो रही हैं, रास्ते नहीं आते लौटकर वापस अब शायद पीठ की आँखों पर पट्टी चढ़ गई है, दिन भर दौड़ता है सड़कों पर ये शहर, इसकी साँसे बहुत जल्दी फूलने लगी है। रात कटे कभी जो 'गर करवटों  में तो शहर भर का सन्नाटा चिल्लाने लगता है, इतनी ख़ामोशी भरी है इन गलियों में कि लगाये आवाज़ फल-सब्ज़ी वाला भी, तो किसी ने दर्द में चीखा हो कहीं पर उसकी कसक सुनाई पड़ती है हाँक में। डर लगता है पैरों को कि उन्हें चलते हुए न देख ले आँखें, घबरा जाता है एक हाथ ख़ुद ही के किस्सों को अब लिखते हुए, इतने गुनाहों को पनाह दी है इन दहलीज़ों ने कि अब गुज़रे हवा भी, तो डरने लग जाते हैं मकान। घूरे जा रहा है कॉलोनी के बीच बना पार्क सामने वाली 6 मंजिला इमारत को, जैसे देखती हैं गाँव की गलियाँ शहर जाती किसी सड़क को, मैं देखता हूँ इन शहरों को बढ़ते हुए तो ख़ुद को उसी पार्क में खड़ा पाता हूँ।                                               - कमलेश

तुम्हारी आँखें

तेरे दीदार से उपजी बेफ़िक्री के बाद, हम नहीं देखते कि लोग क्या देखते हैं।                                                  - नागेश ये पंक्तियाँ उतनी ही सार्थक होती हैं जब तुम्हें अपने नज़दीक पाता हूँ मैं, जितनी कि इस दुनिया में जीवन की हकीक़त। मुसलसल चल रहे कितने ही ख़यालों और चिंताओं का सफ़र एक पल में ख़त्म हो जाता है, जब तुम्हें अपनी ओर आते हुए देखता हूँ मैं। जितना कुछ भी लिखा या पढ़ा गया है इश्क़ की इबादत में, या तुम्हारी तारीफ़ों में उसे एक दिन उन्हीं कागज़ों में चूर होकर मिट जाना है। जो कसीदे पढ़े या गढ़े गए दिलों की ख़्वाहिशों पर वे भी एक दिन बूढ़ाकर शमशान का रूख़ करना चाहेंगे। जब तुम पास होती हो तो मेरी बातें तुमसे नहीं होती, तुम्हारे जिस्म का हर क़तरा बतियाने पर उतारू हो जाता है। इश्क़ एक किताब है जिसे मैं अपने सवालों के जवाब न मिलने की चाहत लिए पढ़ता हूँ। तुम्हारे काँपते हाथों से तुम्हारे लिखे को पढ़ना तुमने मुझे छू कर उतना ही सरल और सहज कर दिया जितना कि एक दो साल के बच्चे के लिए 'माँ' शब्द को कहना हो जाता है।          ख़ामोशी की उम्र कितनी है यह आज तक कोई जान नहीं पाया, शायद ये ब्रम्

खोज

कोई नहीं देख पाता सालों तक कि वह क्या ढूंढ रहा है, मैंने पाया तुम्हें तो जान पाया कि मैं तुम्हारी हकीक़त का पीछा कर रहा था। तुम दिखती हो बोधिवृक्ष सी जिसके तले पहुँचकर मैं बुद्घ सा वैराग नहीं, कृष्ण सी मुहब्बत चाहता हूँ। दुनिया ढूँढ रही है समस्याओं का हल क्रांतियों और आंदोलनों में, मुझे लेकिन तुम्हारे बगल में बैठकर सोचना कि प्रेम ही सारी बातों का समाधान है, अत्यधिक सुकूनदायक लगता है। मैं नहीं कहूँगा कि तुम प्रतीत होती हो किसी रिश्ते सी जो ज़िन्दगी को ख़ुशियों से भर दे, मैं नहीं बताउंगा किसी को भी तुम्हारा पता, क्योंकि मैंने उसे जानने की कोशिश नहीं की अब तक। मैं केवल तुम्हें पूरे रास्ते मेरे दाईं ओर चलते देखना चाहता हूँ, ताकि बिस्तर के कोने से खींचकर तुम्हें वर्तमान की क्रिया बनाकर रख सकूँ।                       तुमने मुझे दिया अपना वक़्त तो मैं जान सका कि मैं कई बार कितने ही रिश्तों को वक़्त नहीं दे पाया। मैंने रखा अपना सिर तुम्हारी गोद में तो मुझे पता चला कि क्यूँ एक प्रेमी अपनी प्रेमिका में माँ तलाशने की गलती करता है। तुमने मेरे माथे को अपने हाथों में लेकर मुझसे जताया कि मैं पिछले 11 साल

प्रेम मुलाक़ात

"पहली बारिश को भी नहीं नसीब, कहाँ से लाती हो अपने गेसुओं में वो ख़ुशबू!" इन पंक्तियों के साथ मैंने तुम्हें अपने भीतर उतारा, जब तुम कई सौ किलोमीटर से मेरे नज़दीक चली आयी। तुम्हें देखना उस रोज़, हल्के कोहरे और मुस्कुराती ठंड में हर बार देखने से कतई अलग नहीं लगा मुझे किन्तु तुम्हारे कंधों के पर्यटक स्थल पर अपनी सारी बातें और दिल को रखकर जाना मैंने कि किस तरह नदी, सारे संताप और पेड़ की छाँव दर्द मिटा देती है। गहराइयों में उतरना जितना आसान होता है उतना ही कठिन होता है वहाँ से वापस लौटना, शायद इसीलिए कि आने में आँखें और लौटने में पीठ होती है। तुम्हें देखना अपने समक्ष इडली के ग्रास खाते हुए, मुझे इतना अचंभित करता रहा कि मैं मेरे द्वारा खाये गए तमाम इडली के ग्रास की याद में खो गया, तुम खाते हुए उतनी ही सहज लगी जितना कि होता है एक पेड़ किसी फल को पोषित करते हुए। एक सीट पर बैठा मैं, तुमसे केवल तीन साँस और एक व्यक्ति की दूरी पर, जब वह फासला पाटकर तुम्हारे नज़दीक पहुँचा तो ख़ुद को तुम्हारे हाथों की छाँव में पाया, तुम्हारे हाथ जब मेरे माथे पर घूमते हैं तब मुझे पता चलता है कि किस तरह चंद्रमा धर

तीन कविताएँ

1. पानी से भरी एक पतीली को मैं देखे जा रहा हूँ आँखें गढ़ाकर, तुम मेरी आँखों के प्रतिबिंब के भी तीन कदम पीछे आकर खड़ी हुई; तुम्हें देखते रहना पानी में थोड़ा-थोड़ा ज्यादा सुकूनदायक लगता है मुझे, बजाय मुड़कर तुम्हें पूरा देख लेने के। 2. मैं और तुम कल कई सौ कोस की दूरी पर थे, और शायद कल इससे भी ज्यादा फ़ासले पर हों, लेकिन ख़ूबसूरती यह है कि आज हमारे बीच रत्तीभर भी दूरी न रही। 3. बस एक बार तुम देखना सूरज की ओर बग़ैर माथे पर हाथ रखे, फिर देखना वह तुरत-फुरत ढल जाने लगेगा। मैं लेकिन देखूँगा काली रात का ठंडा चाँद, जो रात भर के लिए इस दुनिया के सीने पर ठहर जाएगा।                                                - कमलेश

ख़्वाहिश

कॉलेज के गेट से स्कार्फ बांधे निकली लड़की, और स्टेशन के ओवरब्रिज की सीढ़ियाँ अनमनेपन से चढ़ रहा लड़का, ज्यादा कुछ नहीं केवल किसी बिंदू पर पहुँचकर, फिर मिल जायेंगे ऐसा चाहते हैं।                                          - कमलेश