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तेरी तारीफ़

हजारों साल पहले किसी ने लिखी थी चाँद पर कविता, अब वह बूढ़ा हो चला है । जब भी कभी निकलता है तारों की गठरी कांधे पर लिए उससे छुट जाती है आजकल, आसमान में किसी पत्थर की ठोकर से, और बिखर जाते हैं सारे सितारे । वो कोशिश नहीं करता है, रास्ते के गड्ढों को भरने की शायद उसने तुम्हें देख लिया होगा, जब उसकी गठरी से सितारे बिखरे, तो तुम्हारी हंसी के आगे उनकी रौनक ग़ुम हो गई । उसने चाह रखी के ताउम्र वह भी रहे बिलकुल जवान ही, मगर देख के तुम्हारा नूर उसने इरादा बदल डाला । अब वक़्त करवट ले चूका है, मैं चाँद पर नहीं और ना ही तुम पर लिखूंगा कुछ, अब जो क़सीदे पढ़े या लिखे जायेंगे, वो ख़ुद चाँद लिखेगा । जो अपनी चांदनी को तुम पर लुटायेगा, सब कुछ हार कर तेरे आगे कोशिशें तमाम करेगा, लेकिन नाकाम ही रहेगा वो भी मेरी ही तरह, तेरी तारीफ़ लिखने में ।                         -- कमलेश

दिल के खालीपन का इश्तेहार

दिल के खालीपन का इश्तेहार यूं लगा रखा है, सारे शहर को उसकी अगुवानी में लगा रखा है । मुश्किलों से मुलाक़ात भी होती रहती है लेकिन, अभी मैंने ध्यान अपना बस उनपे लगा रखा है । वो हैं कि बस ज़िद्दी बन कर बैठ गए ऐसे ही, मैंने जबकि मेज़बानी में खुद को लगा रखा है । ख़्वाबों से निकलो और चले आओ दहलीज़ पे, तुम्हारे इंतज़ार में सारा  मोहल्ला सजा रखा है । संभलों के वक़्त बहुत कम रह गया है अब तो, तुमने क्या ये मज़हबों का झगड़ा लगा रखा है । उम्मीदों के सेहरे को मेरे माथे पर मत सजाओ, खुद के अजीज़ ख़्वाबों को मैंने दफना रखा है । मौत चाह ले तो भी नहीं आ सकती मुझसे मिलने, कामों की फ़ेहरिस्त में उसे आख़िर में लगा रखा है ।                                                                                              -- कमलेश

सुनना

हर कहानी की एक आंख होती है, काश हर कहानी के दो कान हो ।                                       - नागेश                     हर कहानी लिखित रूप लेने से पहले सुनी जाती है स्वयं लेखक के द्वारा, जब उसके अनुभव यह कहानी कह रहे होते हैं तब लेखक अपने विचारों के प्रवाह को थाम कर इस कहन का श्रोता बनता है । यह पंक्तियां भी केवल लिखकर पढ़ने के लिए नहीं छोड़ दी गई, जिसे छोड़ा गया है लेखक के द्वारा वो है एक अहम सवाल जिसके बारे में एक बड़ा तबका शायद सोचना ही भूल गया । सुनना बातचीत का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना कि कहना, जब कोई बात कही जाती है तब श्रोता को चाहिए कि वह उस हिस्से के साथ जोकि कहा जा रहा है, जो नहीं कहा गया उसे भी सुनने की पुरजोर कोशिश करे । जब बातचीत के आधुनिक साधन नहीं थे तब पूर्वजों ने अपने आप को श्रोता होने के लिए तैयार किया ताकि वे सारी कहानियां, जानकारियां और किस्से जो किसी भी टेप रिकॉर्डर में संग्रहीत नहीं है हम तक यथासंभव उसी रुप में पहुंचा पाए, उन्होंने अपना श्रोता होने का दायित्व निभाया क्योंकि उन्हें एक ही मौका मिला करता था या शायद बहुत ही सीमित । वे हमारी तरह भाग्यशाली

क्यों

अग्नि परीक्षा की ज्वाला में जलती हर बार सीता ही क्यों, देती है स्वयं जलकर अपने होने का प्रमाण क्यों । भय के समाज से तजता है राम उसको, कितने ही वचनों को तोड़ रघुकुल की रीति निभाता वो, अपने सतीत्व का प्रमाण देती हो जाती कलंकिनी है स्त्री, त्याग कर के मानवता का हो जाता मर्यादा पुरुषोत्तम राम, टूट जाता है राम भी समाज की आंधी में क्यों, मांगता है एक सती से उसके होने का प्रमाण क्यों । फिर मिटाने को वही अपवाद कपटी समाज का, हो निर्ल्लज देता आदेश एक बार फिर प्रमाण का, सम्मुख खड़े उसके सूत प्रत्यक्ष बनकर खुद गवाह, पर लांघ दी उसने मर्यादा कहलाने को पुरुषोत्तम राम, चढ़ गई भेंट सीता जमीं को दे ना पाया राम कोई प्रमाण क्यों, दिलाने सम्मान सीता को झुक ना पाया उस दिन राम क्यों ।                                 -- कमलेश

भूत, ज़िन्दगी और प्रेम

               सारी कहानियां अधूरी होती है, जो कहानी पूरी हो जाए वो कहानी कहानी नहीं । अंत जैसी कोई भी चीज इस दुनिया में नहीं है, जिसका इंतजार किया जाए । यह कहानी भी अपना अंत नहीं कह पा रही है, इसीलिए इसे आकार देने का मन किया, अक्सर कल्पनाएं बहुत हद तक सच सी प्रतीत होती है पर अफसोस वे सच नहीं होती । कुछ दिनों पहले ही घर लौटा, यह सोचकर कि अब नई शुरुआत करेंगे एक नई जगह से । नई जगह का नाम बस पता था बाकी कुछ नहीं मालूम था, मेरी नई शुरुआत से मुझे, मेरी प्रेमिका, कुछ दोस्त इन्हें छोड़कर बाकी सारे लोग बहुत ही परेशान थे । ख़ैर, प्रेमिका और दोस्त समझते, समझाते रहे लेकिन बाकी लोग रिसर्च करते रहे कि इस आकस्मिक कदम की वज़ह क्या थी । अरे! मैं यह बताना तो भूल गया कि हुआ क्या था, दरअसल मैं कॉलेज छोड़ आया था वो भी अच्छी नौकरी दिलाने वाला जोकि अंततः मुझे नौकर ही बनाने वाला था । घर आते ही किताबों में खुद को बंद करने की कोशिश मैंने भरपूर की, थोड़ा बहुत हो पाया लेकिन बदले में मिली ख़ामोशी जो दूसरों के लिए परेशानी बन गई । जो लोग गाहे बगाहे मिल जाते मुझसे कुछ नहीं कहते, बाद पिताजी से कहते इतना चुप क्यों रहत

मौसम

आज सुबह से बादल हैं आसमां सांवला दिख रहा है क्या यह मौसम है ? नहीं नहीं ये मौसम नहीं यह खिलवाड़ है, खिलवाड़ है मेरे अरमानों के साथ, मेरी आंखों के इंतज़ार के साथ । पलकें झुक रही है बार बार इस ठंडी हवा से, नहीं नहीं ये ठंडी हवा नहीं प्रहार है, प्रहार है मेरी ख्वाहिशों पर मेरे हाथों की उंगलियों पर, जो इस मौसम का वर्णन करने की कोशिश कर रहे हैं । वर्णन ! नहीं नहीं यह वर्णन नहीं हो सकता, अगर मुझे इसे पढ़कर तकलीफ़ होती है तो यह वर्णन नहीं क्रोध है, अकेलेपन से उपजा सन्नाटे में पलकर बड़ा हुआ, यह क्रोध है मेरा जो केवल मौसम के लिए झलकता है ।                              - कमलेश

मेरी कविताएं

कोई भी पंक्ति या ग़ज़ल अब नहीं उतरती मेरे जेहन से पन्नों पर, कोने में कमरे के बिखरे पड़े हैं अब तक कई कहानियों के टुकड़े । दीदार के बगैर ही गला घोंटा है मैंने जाने कितने अल्फाजों का, चिख़-चीख़कर जो शायद ताज़ा करने की कोशिश में लगे थे तेरी यादों को । हर कोई फसाना आजकल जो बयां करता हो मोहब्बत, अजनबी ही लगता है मुझको जिसमें वो बेचारा आशिक़ भले ही करता हो इज़हार अपने प्रेम का, और चाहता हो प्रेमिका का इकरार । कतई ख्वाहिश नहीं के लिखूं तेरी सूरत सी कोई भी ग़ज़ल अब से, जो यादों के ज़ख्मों पर मरहम के बजाय नमक होने लगे । कोई शिकायत नहीं मुझे अपने इस मेहमान मिजाज़ से, जो तुझसे मिलकर लौटने के बाद चंद दिनों के लिए साथ आया है । चाहत है कि अब से राज़ ही रखूं सबसे, तेरे प्रणय को जो गाहे-बगाहे, झलक जाता है मेरी कविताओं में ।                                - कमलेश

याद

चित्र
हर रोज़ रात को सोने जाते वक़्त जब बिस्तर का रुख करता हूँ, तब मेरी नज़र खिड़की की जाली के पार होती हुई आसमान में टिमटिमाते एक पीले तारे पर जाकर ठहर जाती है, शायद तुम भी उस वक़्त उस तारे को देख रही होती हो ! और इस तरह हमारी नज़रें मिल जाती है । रात,  Source - Hamipara.com नज़रों की इस बातचीत और उस पीले तारे को निहारते हुए गुज़र जाती है; भोर के वक़्त उस विलुप्त होते तारे को देख, ठिठक जाता हूँ मैं, तब तुम भी तो उगता हुआ सूरज देख रही होती हो । रात भर की खलिश मिटाने अलसुबह जब तुम बना लेती हो एक चाय, ठीक उसी वक़्त मैं भी पी रहा होता हूँ वो ही चाय ! दिन को, तुम्हारी यादों की बारिश में, एक एक कर भिगो देता हूँ मैं ख्यालों के सारे पुलिंदे, तब शायद तुम भी इसी तरह भीगकर, मयस्सर कर लेती हो मेरे एहसास । किसी आलस भरी दोपहर जब काम की उहापोह के बीच, तुम खीझ उठती हो किसी पर, झल्ला उठता हूँ मैं भी, उसी वक़्त पास खड़े किसी शख्स पर लेकिन बेवजह ! थकान से लबरेज़ जब मैं, जा बैठता हूँ खुली छत पर शाम के साए में, तब गुजिस्ता लम्हों की फेहरिस्त पढ़कर एक आंसू छलक जाता है आ