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सीखना

 " अगर मुझे कोई पेड़ काटने के लिए छ: घंटे दिए जाएं तो पहले चार घंटे में, मैं अपना हथियार पैना करूंगा ।"                                              - अब्राहम लिंकन                      कोई भी विचार आपके दिमाग में आने से पहले यह तय नहीं करता कि आप सफल होंगे या नहीं, विचारों की इस प्रक्रिया में हमारा शामिल होना बहुत ज़रूरी होता है । हमारी पहली आवश्यकता यह है कि हम अपने विचारों को सुने और उनके अर्थ को सहज होकर खोजें । अर्थ खोजने की क्रिया में पहला पड़ाव आता है सीखने का, सीखना सतत दोहराव का एक परिणाम है । दोहराव के फलस्वरूप दो चीज़े उत्पन्न होती हैं, पहली होती है आदत और दूसरी सीखना । आदत बना लेने और सीख जाने में अंतर समझना जरूरी है क्योंकि अक्सर इन दो गुणों में संशय पैदा होने के आसार बने रहते हैं । एक उदाहरण से हम इसे आसानी से समझ सकते हैं जैसे कि किसी व्यक्ति ने दोहराव से सीखा कि सिटी कैसे बजाते हैं और उस गुण पर काबू पा लिया, वहीं दूसरे ने दोहराव से उसे आदत बना लिया । दोनों का फ़र्क बस उन्हें समझकर उपयोग करने में ही है ।           सीखना अवलोकन करने और सुनने से आरंभ होता है,

आजकल में

शिकायतों के चेहरे पर एक नया नूर दिखने लगा है, पिछले कुछ दिनों में उन्होंने बगावत की सारी तैयारियां कर ली हैं । तुम चाहती हो कि शिकवे ना रहें और मुझे इनकी बगावत में दिलचस्पी है, बेहतर यही होगा के हम इन्हें इनके हाल पर छोड़ कर कुछ बातें कर लें, क्योंकि बातें ही है जिनसे शिकायतों में खौफ़ बना रहता है । तुम ढूंढ रही हो मुझे उस गुज़रे हुए पल में, मैं तुम्हारा इंतज़ार आने वाले कल में करने लगा हूं, क्यों ना हम ये दूरियां पाट कर भूत और भविष्य को जोड़ दें। शिकायतें वो भूत है जिसका हम सामना नहीं करना चाहते, और भविष्य में वो सारी बातें है जो शिकायतों से युद्ध में जीत जाएंगी। आओ तुम और मैं, भूत और भविष्य के खेत में गड़े रहने के बजाय, वर्तमान होती मेड़ पर बैठकर बातों के  दराते से, शिकायतों का चारा काट दें किसी आजकल में ।                        -- कमलेश

अन्तिम इच्छाएं

ख्वाहिशों का जेहन में होना शाश्वत क्रिया होती है, और सांसें इच्छाओं पर होने वाली महज़ एक प्रतिक्रिया का रूप, कोई सांस लेना छोड़ भी दे तो वह मर नहीं जाएगा, पर जब इच्छाओं का अंत होने लगे तो मौत से मुलाक़ात का वक़्त, बहुत तेज़ी से नज़दीक आता है । मैं भी जब मौत से मिलूंगा तो उसे सुनाना चाहूंगा मेरे महबूब पर लिखी कोई ग़ज़ल, और फरमाइश करूंगा उससे ग़ालिब से मिलवा देने की, सुना है आख़िरी ख्वाहिश मौत खुद पूरी कर देती है । मेरे अंतिम वक़्त में मुझे दिलासे देने की बजाय जो मुझे कहेगा कि मेरा समय हो गया, उसी को हक़ होगा मेरी चिता को आग लगाने का; मेरे महबूब तुमसे एक गुज़ारिश है मेरी, कि जब देखो मुझे मरते हुए तो मेरा सिर अपनी गोद से हटा, ज़मीन पर लिटा देना । भागदौड़ में मेरे मरने की मुझे अपने हाथ की आख़िरी चाय पिला देना, बजाय गंगाजल मुझे देने के । मरघट पर आने वालों को एक एक प्लेट पोहे और मेरी पसंद की चाय, मुझे जलाने से पहले बांट देना और बाद में, रख लेना एक मुशायरा मेरे तीसरे पे, जहां मातम नहीं बल्कि गीत ग़ज़लों का सिलसिला हो । मेरे अजीज़ तुमसे एक वायदा लेना है

जनता एक्सप्रेस

                         “यात्रीगण कृपया ध्यान दें इंदौर से चलकर उज्जैन, भोपाल, ग्वालियर, आगरा के रास्ते जम्मूतवी को जाने वाली गाड़ी संख्या 12919,मालवा एक्सप्रेस, ग्वालियर स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 से चलने को तैयार है धन्यवाद |” “ओये ट्रेन आ गई है, तू कहाँ है अब तक?” “ बस आ रहा हूँ दो मिनट में ” “चल ठीक है” अमन ने फ़ोन रखते हुए कहा और बोगी नंबर 7 को खोजकर बैग थामे गेट पर खड़ा हो गया | सीट का नंबर उसे पता नहीं था इसलिए उसे मधुकेश का इंतज़ार करना पड़ा, मधुकेश ट्रेन छूटने के ठीक बाद पहले बोगी नंबर 8 में चढ़ा और फिर उथल-पुथल मचाते यात्रियों को चीरकर अमन तक पहुँच पाया | “कौनसी सीट है ?” अमन ने पूछा, “ एक मिनट मेसेज देखने दे |” “कोई तो काम रेडी रखा कर यार” “S-7 43 और 44”   मधुकेश का जवाब हल्की आवाज़ में सुनाई पड़ा | कोई भी काम रेडी ना रख पाना इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स की बड़ी कुशल प्रतिभा होती है, खैर दोनों की बहस और खोजबीन का नतीजा ये निकला के दोनों अभागे इंजिनियर गलत ट्रेन में चढ़ चूके थे, जिसका नाम तक उनको नहीं मालूम था | “अबे चूतिए, अब पता चला ज्यादा होशियार बनता है जब तुझसे पूछा था कि म

मैं और तुम

वक़्त चल दिया है भागीरथी सा मेरे दिल की गंगोत्री से, नासमझ देखता नहीं पलटकर नहीं तो जान जाता, कैसे बिखरा था हिमालय हजारों साल पहले गंगा उद्गम के समय । कोशिशें कई हुई है तेरे बिना जीने के लिए, लेकिन सब नाकाम रही अब ये तो जग ज़ाहिर है कि, गंगा और हिमालय कभी भी अलग नहीं किए जा सकते; अब तुम ही बताओ कैसे रहेगी गंगा हिमालय के बग़ैर, और कौन ही जानेगा हिमालय को गंगा से जुदा हो जाने के बाद । एक हरिद्वार है जो वर्षों से जुटा है गंगा को अंगीकार करने के लिए, लेकिन प्रेम पाश ने हमारे उसे हमेशा निष्फल ही रखा, सारे प्रयास विफ़ल हो चूके तब विष्णु ने तुमको बनाया, मुझे पाश में बांधने के लिए और कोई दो राय नहीं के, वो पूरी तरह सफल हो गए । विचार करो कि किस प्रकार सृष्टि की शक्तियों का उपयोग, हम दोनों के लिए किया गया; सारे हथकंडे, सारी माया सृजनकर्ता ने अपना ली लेकिन, वो इस बात को भूल गए के 'हिमालय और गंगा के बीच, किसी भी हरिद्वार के लिए कोई स्थान कभी था ही नहीं ।'                                    -- कमलेश

ग़ज़ल

चित्र
Source - Pinterest.pt ये आँखें तुम्हारी शराब है क्या, नाज़ुक होंठ कोई गुलाब है क्या । महकती है खुश्बू हर-तरफ तेरी, जिस्म ये तुम्हारा गुलशन है क्या । रातों से तकरार-चांद से मौसिक़ी, तुझसे इश्क़ कोई मज़ाक है क्या । छू लें तुम्हें जो कभी बेशर्मी से हम, तो बतलाओ कोई ऐतराज़ है क्या । ऐसे वक़्त ज़ाया नहीं किया करते, हसीन शामें हर रोज़ आती है क्या । मेरे सवालों पर ऐसे ख़ामोश बैठ गए, किसी बात की तुम्हें नाराज़गी है क्या । ये ज़माना सताता ही है चाहने वालों को, पर खुद सोचो इसकी औकात ही है क्या । माना कि एक दिन सबको मरना है, तो बतलाओ हम जीना छोड़ दें क्या । कुछ दिनों से ख़फा हैं चंद मिलने वाले, सोचता हूँ ये लोग कहीं के नवाब है क्या । मौत आए तो उसे कहना इंतज़ार करे, तेरे दीदार के बगैर ही मर जाएंगे क्या ।                                                                             -- कमलेश