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ग़ज़ल

कोई लम्हा ठहरा नहीं जम के एक अरसे से यहाँ, आँखें बिछी हुई थीं कब से तुम्हारे इंतज़ार में यहाँ। तुम आये काली घटाओं के साये में मिलने मुझसे, बदलकर रख दिया तस्सवूर तुमने पल भर में यहाँ। रुके, थमे, देखा, पढ़ा, जाना, सुना और कहा कुछ, फिर तो मैं डूबा ऐसे कि कोई खोया नहीं वैसे यहाँ। मुलाक़ात, ख़ामोशी, बातें और साथ सब फ़िज़ूल हैं, मैं रहता हूँ कहीं भी नहीं दुनिया में, तुम रहते हो यहाँ। मोहब्बत क्या है! अक़्स है मेरा ही आईने में उतरा-सा, तुम देखो ज़रा रखके कदम आगे, क्या दिखता है यहाँ! होंठो पर उदासी और आँखों में नरमी अच्छी भी नहीं, जो तुम आओ क़रीब मेरे, तो बताएं क्या छुपा है यहाँ! मैं, तुम और हम तीन लफ्ज़ हैं बस आवारा घूमते से, ठहरो चाँदनी भरे लम्हें में, तो जताएँ तुमसे प्यार यहाँ। मैं नहीं रोकूँगा वो रास्ता जो जाता हो वक़्त से आगे, धीरे से ज़िन्दगी ठहर के, मौत होने लग जाएगी यहाँ।                                                         - कमलेश

कविता २ (इंतज़ार)

छाई है ख़ामोशी इस कमरे में जहाँ तुम छोड़ गए अपनी अनुपस्थिति, मैं कर रहा हूँ अभी भी वो सारी बातें जो हो रही थी उपस्थितियों के क्षणों में; ढूँढ रहा है बिस्तर पर गिरा हुआ एक आँसू कि उसे प्यार जताने वाला हाथ नदारद है, खोज रही हैं घेरे में बैठी दो आँखें कि उसकी बातें रखने वाले कंधे नहीं दिखते। लौटना तुम लौटूँगा मैं, वक़्त नहीं ही लौटे तो बेहतर होगा; इंतज़ार है आँखों को इंतज़ार में हैं कुछ आँसू, इंतज़ार में है दरवाजे के सामने वाला पीपल; इंतज़ार में हो तुम, इंतज़ार में, मैं भी।                                 - कमलेश

कविता १ (मिलन)

कुछ इंतज़ार के लम्हें भटक रहे थे मेरे इर्द गिर्द, तुमने आकर उनको पूर्णता दे दी। मैं स्थिर हो चला हूँ अपने वक़्त में, तुमने अपनी उपस्थिति से मेरी स्थिरता को ठहराव दिया। हम नहीं दिखे कभी भी अलग एक दूजे से, समानतायें जितनी उतने ही अंतर; आँखें खुली रहें तो दिखता है ख़्वाब और बंद करते ही छा जाती है हकीक़त। तुमको देखना ख़ुद में घुलते हुए बिना किसी आवाज़ के कहते हुए, सुनना तुम्हारा सवाल कि क्या कहा मैंने! जो मेरे प्रेम से उपजी ख़ामोशी में सुना हमने; रात कितनी भी गहरी क्यों न हो बीतने में वक़्त तो लगता है, लेकिन हम वक़्त से तेज़ रहे हमने लम्हों की पलकों के खुलने से पहले अपनी रात को फिर तह कर के रख दिया।                                              - कमलेश

वाकये, चुनाव और हम

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1. यह यमुना है, हाँ जी इस देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोगों की यमुना मईया, जिसका पानी अभी ऐसी हालत में है जिसको पीना तो दूर छू लेने भर से आपको चर्म रोग और स्किन कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है। एक तरफ हम इसकी माँ मानकर पूजा करते हैं और उसी पूजा के अंत में इसमें बेतहाशा कूड़ा करकट डाल देते हैं, तो जी यही है क्या शास्त्रों में पूजा का विधान?  भारतीयों के कर्मों और प्रकाण्डों ने जितना नुकसान प्राकृतिक संसाधनों को पहुँचाया है उतना बाकी चीजों ने नहीं। 2. हाल ही में दिल्ली में SEE के 3 दिवसीय लोकार्पण समारोह में पिछले 5 सालों से उसके लिए अथक प्रयास कर रहे दलाई लामा और उनकी टीम दिल्ली में थी, जिन्हें समारोह की समाप्ति के बाद प्रदूषण से उपजे संक्रमण के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। Source - Google 3. दिसम्बर में एक टीबी के मरीज़ को दिल्ली के एक नामी अस्पताल से डॉक्टरों ने 1 महीने तक जानबूझकर छुट्टी नहीं दी, क्योंकि डॉक्टरों का कहना था कि वह मरीज़ अगर अस्पताल से बाहर गया तो उसकी जान जाने का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा, वजह दिल्ली का प्रदूषण। ऐसे अनगिनत वाकये हैं जिन्हें अगर हम देखें तो

हमारा जीवन

वक़्त और मौत मेरे विश्वास, और तुम्हारे प्रेम को इतना कमज़ोर कभी भी नहीं बना सकते कि हम उठ न सकें, मुक्त न कर सकें किसी को उसके जीवन से, जीवन की मुक्ति केवल देह से रूठकर चले जाने में नहीं, रूह को ढूंढकर एकाकार होने में भी है; कोई क्षण कितना भी गहरा क्यों न हो वह बीतने के लिए ही पैदा हुआ है, यह ख़याल कितना छोटा है कि ठहरकर सब कुछ ही देख लिया जाए, मैं 'गर ठहर गया इस बहती हुई धार में तो, लहरें मुझे बहाने की बजाय उतार लेंगी उसी क्षण अपने अंतस में; और मैं मृत्यु सा होकर अदृश्य, चल दूँगा बिना मंज़िल की राह पर। वक़्त तुम्हारे क़रीब रहेगा कुछ दिन सुस्ताने के लिए, लेकिन तुम तो चलने के लिए बनी हो, तुम भी, वक़्त को छोड़कर बढ़ जाओगी किसी अनजानी राह की ओर!                                - कमलेश

अभिव्यक्ति व्यर्थ है और व्यर्थ हैं परिभाषाएं सारी

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Source - Time.com कुछ रातें ज़िन्दगी का आईना सामने रखती हैं। जब मैंने तुम्हें देखा अपने क़रीब बैठे हुए तो मैंने जाना कि प्रेम सबसे ताकतवर और असरदार हथियार है किसी भी लम्हें में ख़ुद को जी लेने के लिए। तुम प्रेम हो यह बात मैंने तब जानी, जिस दिन तुमने मुझसे कहा था कि हमारा रिश्ता प्रेम की बुनियाद पर खड़ा है। तुम्हें रखना किसी दिन के आठों पहर अपने सामने और खो देना तुमको ठीक अगले ही दिन ख़ुद में से, यह और कुछ नहीं मेरे प्रेम में डूबने के मार्ग को आसान बनाता है। मैंने यही चाहा है हमेशा कि प्रेम में खोकर, सब कुछ ही खो दिया जाये, प्रेम को भी! लेकिन मैं नहीं जानता यह कथन कितना सत्य है! जब तुम बातें करती हो, कई नदियों, जंगलों, शहरों और पर्वतों के पार से, तो मुझे कालिदास की याद आ जाती है। तुम कालिदास के लिए सदैव अकल्पनीय ही रही, केवल मुझे ही अब तक तुम्हें प्रकति के प्रेम के ज़रिए ख़त लिख सकने का सुख प्राप्त है। तुम्हें ढूँढना उगते हुए सूरज में, मुझे पंछियों की चहचहाहट से दूर नहीं करता। किसी रेगिस्तान में मैं तुम्हारी ख़ुशबू के क़रीब चला आता हूँ उसकी रेत को अपने हाथों में थाम लेने भर से। कोई भ

मैं वहीं हूँ

मैं वहीं हूँ, जहाँ लेते हो तुम साँस जहाँ उठकर देखी धूप तुमने, हूँ वहीं उस छुअन में मैं। जब जब चले तुम्हारे कदम धरा पर, तब तब पाया है मैंने अपने पैरों में धूल को चिपके हुए; हूँ वहीं उस जल मैं, जिसे पिया है तुमने हर प्यास में; मैं नहीं कहीं भी इस धरा पर, वहीं हूँ जहाँ रखे हैं ख़्वाब तुम्हारे। मैं हूँ हर उस पल और शख़्स में, जहाँ तुम हँसे और किया है प्रेम तुमने बंदिशों से परे; मैं वहीं हूँ, जहाँ लेते हो तुम साँस जहाँ उठकर देखी धूप तुमने, हूँ वहीं उस छुअन में मैं।                               - कमलेश

ख़ताओं की पवित्रता

ख़तायें, कितना छोटा और पेचीदा है यह देखने और सोचने में, लेकिन मैंने कभी इतना ख़याल किया नहीं इस शब्द पर, शायद मैं ज़रूरतों को वक़्त देने में व्यस्त था जिसका परिणाम यह हुआ कि ज़िन्दगी के लम्हें नाराज़गी का इक़रार करने लगे। तुम हमेशा से थीं मेरे हर उस पल के व्यापक अस्तित्व में, जब मैं ख़ताओं से मुलाक़ात कर रहा था। मैं नहीं जानता कि ख़ताओं को दूसरी नज़रों से देखना कितना सही है लेकिन जो सही है वह बस इतना ही है कि मेरी नज़रों को लेकर चलने वाली तुम्हारी नज़रें, जिसमें मेरी पूरी दुनिया है; मैं चाहूँगा उस नज़र को, मेरे रास्तों की ख़ताओं से मिलने और बातें करने के लिए।    हम कितना सहज होकर प्रेम कर सकते हैं, यह केवल महसूस किया जा सकने वाला पहलू है। तुम चलती हो मेरा हाथ थामें, तो मैं जान पाता हूँ कि कितने पत्थरों से होने वाली ठोकरें बच गईं। तुम जब जब मुझे धकेल देती हो किसी अनदेखी चीज़ को देखने के लिए, मैं देख पाता हूँ मेरी परछाई के अँधेरे में घिरे लम्हों को, जो चल रहे थे अब तक मेरे पीछे केवल इसी इंतज़ार में कि मैं मुड़कर देखूँगा कभी। मैं शुक्रगुज़ार हूँ प्रेम का,जो तुम्हारे ज़रिये मुझ तक पहुंचता है और मैं उसकी