दिसम्बर
कहीं कम्बल को तरसता है कहीं रोटी के लिए लड़ता है, कभी उतर आता है सड़कों पर किसी निर्भया के इंसाफ़ के लिए, खंगाल लेता है सारे ही जोड़ 'गर झुलस जाता है कभी गैस से। टूट पड़ता है किसी नापाक पर उसकी अक्ल को ठिकाने लगाने, निकलता है अपने घर से बाहर भी किसी अनजान का दामन थामने, बहक जाता है कभी कभी किसी से उठकर मंदिर/मस्जिद तोड़ देता है। लग खड़ा होता है कभी कतार में किसी की दिमागी हालात ठीक न हो तो, बहुत ही जल्दी बदल लेता है पर रास्ते जब भी ज़रूरत महसूस कर लेता है, हुक्मरानों फिर से वही वक़्त है देश में यहाँ हर दिसंबर एक जैसा नहीं होता। - कमलेश