महा मिलन

Source - Pintrest.com












दिवास्वप्न लगती हुई वह

रात जुगनुओं ने पा ली,
साँझ के अंतिम क्षणों को
बींध कर माला बना ली:
उस क्षणिक सी चाँदनी में
पाते रहे सब स्वर्ण रत्न
अस्तित्व खोते उन अधर का
बढ़ता घटता सा जतन।

पूर्णिमा का दूजा चाँद
चल दिया पूर्ण से शून्य को
बाँधे रहे समूची राह में
दो हाथ अपने दो हाथ को:
नित् खोते रहे दोनों ही तन 
पाते रहे हर क्षण नया जीवन
बिसरती रही सारी खुशबुएँ
पाने को एक अनवरत लगन;

रह रह कर मूंदते दो नयन
और, फिर और की प्यास में,
खिल खिल उठा सारा जीवन
कुछ गहरेपन की तलाश में:
बेकाबू होते रहे मधुकलश
जो थे साँझ तक जड़-स्थिर,
रीत कर भी भरते रहे सब घूँट
डूबती निशा में होकर निखर;


Source - Daily Express


सारे अनजाने बंधनों का
कोई भी पट न रहा छूटा,
कोई न बचा तार ऐसा
जो आवेग के बूते न टूटा:
गढ़ता परिभाषा मौन की
झंकृत स्वर पायलों का
दुलारता तन का हर कोना
प्रेम से सम्पूर्ण दंश सलोना;

लिखते रहे हर बीतते पहर
मौन, शोर और सृजन
टूटते रहे आवेग के संग
दर्द, मुस्कानें और तन:
न रहा कोई भी व्याकरण
मिलन के क्षण में अछूता
प्रेम के चुम्बनी क्षणों ने
लिखा हर राग को पवित्रता;

सारी कलियाँ फूल और सब
कांटे मिल एक हो उठे
खोकर अपना स्व और स्व
कुछ जीवन जीवन हो उठे:
ग्रंथ वेद औ’ उपनिषद् सब
व्यर्थ हैं प्रेम भास्य के आगे,
वह खोजते ब्रम्हांड सारा
ठहरा है जो आँखों के आगे।

                                           - कमलेश




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