वसीयतनामा

किसी भी सफ़र के समय
दो भागों में बँट जाती है दुनिया,
मैं बन जाता हूँ दर्शक
ताकि बचा हिस्सा दर्शन हो जाये,
दार्शनिक का कोई अस्तित्व नहीं कहानी में:

सब ढूँढ रहे हैं खुलापन
पैरों में जंज़ीरों को ढोते हुए,
उजाला दीखता तो है आँखों में
पलकों में जमे हुए अँधेरे के पीछे।

मैं चलता हूँ आसमाँ के नीचे
जो घूरता है हर कदम मुझे,
साथ चल रही लड़की कहती है
दूर जाते हो तुम तो
आँखों में बादल छा जाते हैं,
मैं कहता हूँ 
हाँफती धरती और घूरता आसमान,
मौन से प्रतिपल होता संवाद
और पलकों में लिपटा इंतज़ार
प्रेम का दूसरा नाम है।



दो हिस्सों में बँटते से सफ़र में
झाँकता हूँ खिड़की से बाहर,
तो दुनिया दीखती है नई सी
जहाँ इंसान की कमी लगातार बढ़ रही है
जहाँ सपनों का अकाल चल रहा है,
मेरे हमनफ़स
मेरे वसीयतनामे में मिलेंगे दो नाम:
पहाड़ की गोद में बसा जंगल
और मोर पंख
रख पाओ सहेजकर तो रखना।
                                          - कमलेश

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