ज़िन्दगी का केंद्र
ज़िन्दगी के अच्छे खासे दौड़ते-भागते
दिन जब बिस्तर पर बीतने लगे तो लगता है बहती नदी पर पलक झपकते बाँध बना दिया हो. काम
करने का सलीका अचानक से ऑफिस बैग से निकलकर पूरे कमरे में पसर जाता है. अंगुलियाँ
अनगिनत चहलकदमी करती हुई अपने होने के वजूद को किसी मोबाइल, लैपटॉप या कंप्यूटर के
की-बोर्ड पर खपा देती हैं. ऐसे वक़्त में मौसम के बदलते मिजाज़ का अंतर्मन से कोई भी
नाता नहीं पनपता और न ही किसी ख़ूबसूरत कली को देखकर दिल में कोई हूक उठती है. उठता
है तो बस एक निरा खालीपन जो एक लम्बे वक़्त से बाहर से बोलते लेकिन अन्दर से ख़ामोश
शरीर में घर कर चुका होता है. इस दुनिया में हर रोज़ धुलते हैं अनगिनत चेहरे और
सजते हैं उतने ही अधर किसी प्रिय के चुम्बन की आस में, लेकिन कितने चेहरों का
दीदार किया जाता है और कितने ही होंठ चुम्बन के बाद मुतमइन हो पाते हैं! यह सवाल कोई
नहीं करना चाहता कि उसके जीवन में प्रेम है या नहीं लेकिन कामों की फ़ेहरिस्त कितनी
घटा दी है एक ही कुर्सी पर कमर की सारी भावनाओं को क़त्ल करते हुए यह सब को ज्ञात
है.
मैं सोचता हूँ कि दुनिया
में “दर्शन” की आवश्यकता क्यों ही पड़ी होगी और सहसा मेरे अन्दर से आवाज़ आती है “ज़िन्दगी
से उपजते खालीपन को प्रेम से भरने के लिए”. मेरे सवालों में प्रेम का सवाल हो न हो
लेकिन उसके केंद्र से खिंचती एक परिधि ज़रूर होती है जिसे मैं अपनी उपस्थिति का सार
कहता हूँ. जब मैं उस परिधि के छोर से देखता हूँ तो मुझे दीखता है कि मेरी उपस्थिति
के केंद्र में कुछ भी तो नहीं; प्रेम भी नहीं, और तब मेरी उपस्थिति का अस्तित्व अनायास
ही मिट जाता है. मैं सोचता हूँ कि केंद्र होकर भी कहीं नहीं है और उपस्थिति उसकी परिधि
पर न होकर भी सर्वत्र है. शायद इसी को रचनात्मक अद्वैत की संज्ञा दी है किसी महानुभव
दार्शनिक ने. इस अद्वैत को सोचने का वक़्त मेरे फ़ोन में रखे एक अपठित सन्देश ने
बाँधा हुआ है, मैं देख रहा हूँ कि अभी शाम हो रही है आसमान में बादल हैं. कितने
हाथ इस पल कामों की फ़ेहरिस्त छोटी करते हुए बिस्तर में जाने का ख़्वाब देख रहे हैं
और न जाने कितने ही होंठ फिर से एक और जोड़ी होंठो से मिलने की आस में ख़ुद को सजा
रहे हैं, लेकिन इन हाथों और होंठो में से क्या कोई भी यह जानता है कि बिस्तर में
ज़िन्दगी की परिधि ख़त्म हो जाती है और प्रेम के केंद्र में शरीर आ जाये तो प्रेम मिट
जाता है?
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कमलेश
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