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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देश और मौतें

कोई सत्तर बरस पहले गोडसे ने खुद को मार लिया था, तब लोग मिठाइयां बांट रहे थे और कर रहे थे जान बूझकर अनजान होने की कोशिश । फिर शुरु हुआ मौतों का दौर साल दर साल लोग मरते रहे, कभी धर...

पसंद और इश्क़

पसंद होना ना होना दोनों जायज़ है, जैन-दर्शन के स्यादवाद की तरहा ही पसंद भी कुछ पूरी कुछ आधी सब की ज़िन्दगी में ज़रूर होती है । पसंद में एक-ही वक़्त पर अपनी ख्वाहिश को बताया और छुपा...

सृजन

मत पूछो मुझसे कि जो हुआ वो सही था या ग़लत, मेरे बस में कुछ था ही नहीं पता नहीं सब कैसे हुआ और फिर होता चला गया । तेरे होठों की शबनम सा कोई जाम नहीं जहान में, मेरे लबों और तेरी गर्द...

ज़रूरत नहीं

खुशियों के बहानों को तुम्हारे तुम्हें भुलाने की ज़रुरत नहीं, हंसी के अंदाज़ को अपने छुपाने की ज़रुरत नहीं । जैसी ज़िन्दगी तुमने गुज़ारी है अब तक, वैसे ही आगे जियोगी तो बेहतर होग...

घूमते हुए

        जरूरी नहीं कि हमारे आसपास की हर चीज सही हो, कुछ परिस्थितियां होती है जिनमें हमें खुद को उनके अनुरूप या उनको हमारे अनुकूल बनाना पड़ता है । अक्सर हम ये मान लेते हैं कि परिस्थितियों के अनुकूल हो जाना ज्यादा ठीक रहेगा लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि वर्तमान समय के जाने कितने ही मुद्दे और समस्याओं के अनुरूप हम खुद को एक क्या पूरे दस जीवन में भी नहीं ढाल सकेंगे । जब भी कभी   घुमने निकलता हूँ तो कुछ मुद्दे अनायास ही मुझे आ-पकड़ते हैं और मैं उनसे उलझा रहता हूँ, उनसे निरंतर, हर बार, हर सफ़र पर झगड़ते हुए इतना तो समझ आता है कि अगर हर व्यक्ति केवल खुद गंभीर होकर बस एक दफा उनका ख्याल करे तो यह तय है कि इन समस्याओं का एक आम समाधान निकल सकता है । यह समाधान चाहता है कि “शुरुआत जो भी हो स्वयं से हो अन्यथा न हो”, वैसे देखा जाये तो आज के समय में ऐसे मामले गाँधीवादी विचारधारा से अत्यधिक सरलता से सुलझाये जा सकते हैं बजाय कि इन्हें व्यर्थ मतलब की आंच पर सेंकने के ।                 ...