पसंद और इश्क़

पसंद होना ना होना
दोनों जायज़ है,
जैन-दर्शन के
स्यादवाद की तरहा ही
पसंद भी कुछ पूरी कुछ आधी
सब की ज़िन्दगी में ज़रूर होती है ।

पसंद में एक-ही वक़्त पर
अपनी ख्वाहिश को
बताया और छुपाया जा-सकता है,
पसंद और यूनानी दार्शनिक
हेरक्लीटस के सिद्धांत
एक-जैसे हैं,
संसार में किसी भी वस्तु का
अस्तित्व होकर भी ना होना
हेरक्लीटस के लिए सच्चाई है,
मानवीय जीवन में
भावनाओं के संदर्भ
उसको पसंद कहा जाता है ।

लेकिन यही पसंद
जब अनंत होने लगती है,
तो वह अनेग्जीमेण्डर का
सृष्टि-सिद्धांत बन चुकी होती है ;
जिसका कोई ओर होता है ना छोर
बस वही सर्वत्र बन दिखती है,
इतनी प्रचंड की
उसे नाम भी नहीं दिया जा सकता,
कोई पसंद गर अनाम हो जाए तो वह
फूल-भँवरे वाला इश्क़ हो जाती है ।

और उसी इश्क़ को लेकर
आज तक बहस है, वैसे ही
जिस तरह हेरक्लीटस और अनेग्जीमेण्डर
के सिद्धांतों को लेकर तकरारें है,
पसंद और इश्क़ को लेकर
मेरी दरकार कुछ इस प्रकार है कि
पसंद-इश्क़ के इस विवाद पर,
तुम पूर्ण विराम लगा दो
मेरे सीने से लिपटकर ।
                             - कमलेश

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