घूमते हुए

        जरूरी नहीं कि हमारे आसपास की हर चीज सही हो, कुछ परिस्थितियां होती है जिनमें हमें खुद को उनके अनुरूप या उनको हमारे अनुकूल बनाना पड़ता है । अक्सर हम ये मान लेते हैं कि परिस्थितियों के अनुकूल हो जाना ज्यादा ठीक रहेगा लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि वर्तमान समय के जाने कितने ही मुद्दे और समस्याओं के अनुरूप हम खुद को एक क्या पूरे दस जीवन में भी नहीं ढाल सकेंगे । जब भी कभी घुमने निकलता हूँ तो कुछ मुद्दे अनायास ही मुझे आ-पकड़ते हैं और मैं उनसे उलझा रहता हूँ, उनसे निरंतर, हर बार, हर सफ़र पर झगड़ते हुए इतना तो समझ आता है कि अगर हर व्यक्ति केवल खुद गंभीर होकर बस एक दफा उनका ख्याल करे तो यह तय है कि इन समस्याओं का एक आम समाधान निकल सकता है । यह समाधान चाहता है कि “शुरुआत जो भी हो स्वयं से हो अन्यथा न हो”, वैसे देखा जाये तो आज के समय में ऐसे मामले गाँधीवादी विचारधारा से अत्यधिक सरलता से सुलझाये जा सकते हैं बजाय कि इन्हें व्यर्थ मतलब की आंच पर सेंकने के ।
                                                          पर्यावरण के मामलों में गाँधी कहते हैं कि "यह पृथ्वी जितनी हमारी है उतनी ही बाकी जंतुओं की भी है जिनसे मनुष्य अपने कथित तार्किक आचरण के कारण खुद को महान घोषित करता आया है, मनुष्य ने अपने मतलब और सुविधा के अनुसार नैतिक और अनैतिक कार्यों की सूची तैयार की ताकि वह एक नग्न-श्रृंगार के तहत बाकि जंतुओं के अधिकारों का हनन कर सके" । इस दौर में हमें इस नग्न-श्रृंगार को उतार कर, व्यक्तिगत फायदे के बजाय सार्वजानिक हित के लिए सोचना पड़ेगा जोकि गाँधी का मूलमंत्र रहा है । केवल गाँधी ही नहीं बल्कि अनेकों समाज सुधारकों और उनसे भी पूर्व अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुयायियों का ये मन्त्र रहा है कि मनुष्य खुद में सर्वेकात्म ( सब एक हैं ) का भाव उत्पन्न करें, जमीन पर रेंगने वाले सर्पों से लेकर नभ में उड़ने वाले बाजों तक, भूमि पर दोड़ने वाले घोड़ों से लेकर पानी में तैरने वाली मछलियों तक, पेड़-पोधों से लेकर मानवों तक सब एक ही है, अद्वैत-वेदांत के अनुसार जो यह देख पाता है कि सब में एक ही चित्त विद्यमान है या सर्वस्व एक ही फैला हुआ है वही वास्तव में देख रहा है ।
                                     वर्तमान समय की बहुत बड़ी दरकार को समझते हुए मेरे वरिष्ठ भाई और अत्यंत प्रिय युवा लेखक नागेश भाई हमें इस बात से अवगत कराते हैं कि "व्यक्ति विशेष प्रेम से हम सार्वजानिक प्रेम की ओर अग्रसर हों तथा तबका-विशेष नफरत का अंत करें और समूचे जगत को एक धागे में निर्वाह करने के लिए प्रेरित करें" । हमारी आधी से भी अधिक समस्याओं का अंत इन बुनियादी बातों से बहुत ही सहजता से हो जायेगा । इस वर्ष जब भी घूमते हुए किसी ऐसे विचार से अगर आपकी या मेरी भी फिर मुठभेड़ हो तो यह स्वीकारें कि परिवर्तन का वक़्त आ चूका है जो चीख-चीख कर कह रहा है “अभी नहीं तो कभी नहीं”, हमें कई समाजविदों और पर्यावरणविदों के “कन्ज्यूम नाऊ- कंट्रीब्यूट नाऊ” विचार को अपनाकर इस प्रकृति के आगामी समय को खुशहाल बनाना होगा । कोई संकल्प तो नहीं लेकिन इतना जरूर यकीन के साथ कह सकता हूँ कि हमारी छोटी-छोटी कोई भी कोशिशें जो कि समाज और प्रकृति के हित में रहे, तब भी हम बहुत कुछ सुधार सकतें हैं | 
             अंत में इतना ही कि “आने वाले को कल को आज से बेहतर बनाने के लिए आज को सुधारना अनिवार्य है |” 

                                                                                                                                   -कमलेश

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