अन्तिम इच्छाएं

ख्वाहिशों का जेहन में होना
शाश्वत क्रिया होती है,
और सांसें इच्छाओं पर होने वाली
महज़ एक प्रतिक्रिया का रूप,
कोई सांस लेना छोड़ भी दे
तो वह मर नहीं जाएगा, पर
जब इच्छाओं का अंत होने लगे
तो मौत से मुलाक़ात का वक़्त,
बहुत तेज़ी से नज़दीक आता है ।

मैं भी जब मौत से मिलूंगा
तो उसे सुनाना चाहूंगा
मेरे महबूब पर लिखी कोई ग़ज़ल,
और फरमाइश करूंगा उससे
ग़ालिब से मिलवा देने की,
सुना है आख़िरी ख्वाहिश
मौत खुद पूरी कर देती है ।

मेरे अंतिम वक़्त में
मुझे दिलासे देने की बजाय
जो मुझे कहेगा कि मेरा समय हो गया,
उसी को हक़ होगा
मेरी चिता को आग लगाने का;
मेरे महबूब तुमसे
एक गुज़ारिश है मेरी,
कि जब देखो मुझे मरते हुए
तो मेरा सिर अपनी गोद से हटा,
ज़मीन पर लिटा देना ।
भागदौड़ में मेरे मरने की
मुझे अपने हाथ की
आख़िरी चाय पिला देना,
बजाय गंगाजल मुझे देने के ।

मरघट पर आने वालों को
एक एक प्लेट पोहे और
मेरी पसंद की चाय,
मुझे जलाने से पहले
बांट देना और बाद में,
रख लेना एक मुशायरा
मेरे तीसरे पे,
जहां मातम नहीं बल्कि
गीत ग़ज़लों का सिलसिला हो ।

मेरे अजीज़
तुमसे एक वायदा लेना है मुझे,
कि मेरे मरने पर
रस्मों रिवाज मानने की बजाय,
पढ़ दी जाए फ़ैज़ साहब की
वो ग़ज़ल
जो मुझे फ़िर लौट आने का
हौसला देती है
"मुझसे पहली सी मोहब्बत
मेरे महबूब ना मांग..........."
                                 -- कमलेश

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