बढ़ता है ये ग़ुबार क्यूं ? कैसा चलता यह कारवां ?     ना आस कोई, ना साथ कोई, दिशाहीन पथ पर युवा,  जिसने चाहा था अंतस से, स्वर्णिम भारत का सपना,  बाँट के उसके नाम तले, गर्त में धकेल दी सब आस्था ।    Source- Google      क्यूं नाम है होंठो पर भगत का ? क्यूं नहीं है उसके बोल अभी ?  नकार दिया था उसने उनको भी, जो व्यर्थ पिटते थे ढोल कभी ।  कि क्रांति नहीं आये समाज को तोड़ने से,  कि क्रांति नहीं आये लाशों को गिराने से,  कि क्रांति नहीं आये व्यर्थ लहू बहाने से,  राजगुरु-सुखदेव संग क़ुरबानी दी उसने, पर देखकर केवल एक ख्व़ाब  कि आये क्रांति तो विचारों में,  कि आये क्रांति तो कामों में,  कि आये क्रांति तो ज़बानों में ।  यहाँ बैठे हैं अब भगत के नाम के इतने ठेकेदार,  क्रांति शब्द से अनभिज्ञ हैं, हैं सारे के सारे गद्दार ।   रुकता क्यूं नहीं ये सिलसिला मंदिर-मस्जिद के जाप का,  घर की माता-बहनें रोती और ये ठेका लेते हैं एक गाय का,  अपनी स्त्री के जीवन को बना के बैठे हैं सब नरक यहाँ,  किन्तु मुरादों के लालच में, जाते वैष्णों देवी और मक्का ।   क्यों नाम है होंठो पर गाँधी का ? क्यों नहीं उतरता जेहन में ?  गाँ...