ग़ज़ल
अपनी ख्वाहिशों का सूरज उगते देखा है, मैंने तुझको मेरा नसीब लिखते देखा है । झिलमिलाती है चाँदनी जैसे आसमान् पर, तुझको खिलखिलाकर वैसे हँसते देखा है । सिकुड़ जाती है जो छुईमुई जब छुने पर, मेरी पनाहों में तुझको यूँ शरमाते देखा है । बिखर जाता है जैसे कोई फूल हवाओं में, मेरी बाँहो में तुमको वैसे ही टूटते देखा है । घुलती है जैसे शराब पानी में रुह बनकर, खुद में तुझको उस तरह मिलते देखा है । .....कमलेश.....