हम सब जड़ हो चुके हैं और देख रहे हैं अपलक उस श्वेतपत की ओर, जंहा आजाद है कुछ काले वर्ण, जो हमें अपना ग़ुलाम बनाए हुए हैं हमारी सोच भी सिमट चुकी है अब उन्हीं के इर्द-गिर्द ही | कमरे में खिड़की तो है लेकिन दृश्य के लिए ना कि दर्शन को, विचारों को तो बंदी बना चूका है वो उपाधिधारक, जिसके समक्ष हमारी सोच कठपुतली बनी हुई है | और हम सब झुझ रहें हैं, एक अदृश्य युद्ध से जो छिड़ा है हमारी आवाज़ और सोच के बीच | मजबूर हैं वे लोग जिन्हें किताबों ने कैद कर लिया है, कुछ नज़र नहीं आ रहा है उन्हें ऐसे ही वे अंधे ठोकर खाकर मार दिए जायेंगे | सहसा मुझे दिखाई पड़ता है वह मजबूर वृक्ष, जो हाथ जोड़े खड़ा था मानव के समक्ष, फिर भी उसकी सांसें थामकर इस कक्ष को आकार दिया गया है | मैं अब चाहता हूँ कि किताब के पीछे की मासूमियत को पहचाना जाये, ढूंढ लिया जाये वो दर्द जो अब तक अनदेखा किया गया विचारों की पराधीनता के चलते, उतार दिया जाये वो असहनीय बोझ, जिसको हम सब ...