प्रेम मुलाक़ात

"पहली बारिश को भी नहीं नसीब,
कहाँ से लाती हो अपने गेसुओं में वो ख़ुशबू!"
इन पंक्तियों के साथ मैंने तुम्हें अपने भीतर उतारा, जब तुम कई सौ किलोमीटर से मेरे नज़दीक चली आयी। तुम्हें देखना उस रोज़, हल्के कोहरे और मुस्कुराती ठंड में हर बार देखने से कतई अलग नहीं लगा मुझे किन्तु तुम्हारे कंधों के पर्यटक स्थल पर अपनी सारी बातें और दिल को रखकर जाना मैंने कि किस तरह नदी, सारे संताप और पेड़ की छाँव दर्द मिटा देती है। गहराइयों में उतरना जितना आसान होता है उतना ही कठिन होता है वहाँ से वापस लौटना, शायद इसीलिए कि आने में आँखें और लौटने में पीठ होती है। तुम्हें देखना अपने समक्ष इडली के ग्रास खाते हुए, मुझे इतना अचंभित करता रहा कि मैं मेरे द्वारा खाये गए तमाम इडली के ग्रास की याद में खो गया, तुम खाते हुए उतनी ही सहज लगी जितना कि होता है एक पेड़ किसी फल को पोषित करते हुए। एक सीट पर बैठा मैं, तुमसे केवल तीन साँस और एक व्यक्ति की दूरी पर, जब वह फासला पाटकर तुम्हारे नज़दीक पहुँचा तो ख़ुद को तुम्हारे हाथों की छाँव में पाया, तुम्हारे हाथ जब मेरे माथे पर घूमते हैं तब मुझे पता चलता है कि किस तरह चंद्रमा धरती के घेरे में घूमता है, मैं आँखों पर पलकों के पर्दे गिराता हूँ तो जान पाता हूँ कि रात का आसमान से क्या रिश्ता है!
          तुम्हें उस रात अपनी कृतज्ञता को बयान करने के लिए छूना, मुझे दुनिया से इतर प्रेम के आयाम पर पहुँचाता है। जीवन के लम्हें गुज़रने की आवाज़ को सुनने की ताक़त किसी में नहीं होती फिर भी मैं तुम्हें किसी शाम मुस्कुराते हुए सुनना चाहूँगा और जिस राज़ को दफ़नाया गया था कभी, उसे तुम्हारे चश्मे के उतारते ही फिर ज़िंदा करूँगा ताकि तुम जान सको कि हमनफ़स होने और हमसफर होने में कितना अंतर होता है और कितनी समानताएं। तुम्हें रोकना अपने पास कभी भी सुकून नहीं देता मुझे, मेरी चाहत तुम्हें हमेशा रुख़सत करते वक़्त गले लगाकर मेरा प्रेम और तुम्हारे प्रति आभार जताने की इक अधूरी कोशिश की होती है।
                                                           - कमलेश

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