शहर

कोई भूलता नहीं अब रास्ते यहाँ
सो भटकने की गुंजाइशें कम हो रही हैं,
रास्ते नहीं आते लौटकर वापस अब
शायद पीठ की आँखों पर पट्टी चढ़ गई है,
दिन भर दौड़ता है सड़कों पर ये शहर,
इसकी साँसे बहुत जल्दी फूलने लगी है।

रात कटे कभी जो 'गर करवटों  में
तो शहर भर का सन्नाटा चिल्लाने लगता है,
इतनी ख़ामोशी भरी है इन गलियों में
कि लगाये आवाज़ फल-सब्ज़ी वाला भी,
तो किसी ने दर्द में चीखा हो कहीं पर
उसकी कसक सुनाई पड़ती है हाँक में।

डर लगता है पैरों को
कि उन्हें चलते हुए न देख ले आँखें,
घबरा जाता है एक हाथ
ख़ुद ही के किस्सों को अब लिखते हुए,
इतने गुनाहों को पनाह दी है इन दहलीज़ों ने
कि अब गुज़रे हवा भी,
तो डरने लग जाते हैं मकान।

घूरे जा रहा है कॉलोनी के बीच बना पार्क
सामने वाली 6 मंजिला इमारत को,
जैसे देखती हैं गाँव की गलियाँ
शहर जाती किसी सड़क को,
मैं देखता हूँ इन शहरों को बढ़ते हुए
तो ख़ुद को उसी पार्क में खड़ा पाता हूँ।
                                              - कमलेश

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