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प्रेम फलित होता ही तब जब जीत कर रह जाए हारा

प्रेम के वशीभूत होकर लिखता जा रहा है वह निरंतर, है घिरा सब ओर से भीड़ भाव और राग से, खोता जा रहा नित् ही पर हर क्षण अजर एकांत में: तुम रुको क्षण भर देखो दीखता क्या तुम्हें पन्नों ...

दुनिया की जरूरतें

आया तो उड़कर एक ही पत्थर था, लेकिन उसने दो आंखों में अँधेरा और साथ की दस नज़रों में खून भर दिया। रास्ते तो लगे ही थे दस साल की पीठ पर टंगे बैग की हिफाज़त में, लेकिन अभी अभी इंसान से ...

संवाद – बात से साथ का सफ़र

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       इस दुनिया को कान की ज़रूरत है          लेकिन हर कोई बस बोलना चाहता है... यह कथन दो तरीकों से किस तरह देखा जा सकता है, बस उस देखने के तरीके की प्रक्रिया का नाम संवाद है. हर किसी के पास इतनी कहानियाँ है कि लिखते लिखते सारे पन्ने भरे जा सकते हैं और हर कोई उतना ही उत्सुक और आतुर है कि किसी और की कहानी सुनने के लिए उसके पास धैर्य नहीं है. ज़िन्दगी की राहों से पनपती कहानियाँ और उनसे जन्म लेते हुए हर पल के किस्से और किस्सों से उपजा खालीपन, मानसिक असंतुलन इतना बढ़ जाता है कि इंसान भूल जाता है उसे जीना किस तरह है!       संवाद की प्रक्रिया में ठहराव और स्थिरता है ज़िन्दगी की रफ़्तार को समझने के लिए वक़्त प्रदान करती हुई. कानों और दिमाग को कितने आराम की ज़रूरत है इस बात का ख़याल शायद उम्र भर किसी को नहीं आता क्योंकि हर कोई, बस रोज़ भागने वाले हाथ और पैर को आराम देना चाहता है. संवाद की शुरुआत जिस मौन के साथ हुई उसने मुझे इस बात का सन्देश दिया कि अभी मेरे पास काफी वक़्त है जो मैं अपने सवालों के साथ बिता ...

तुम्हारे अधर

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Source - artist.com बारिशें खंगाल रही हैं धरती की कोख़ आंधियाँ पलट रही है तमाम वस्त्र, लोग भूलते जा रहे हैं  जो कुछ देखा, किया और सीखा उन्होंने, रातें छुपी हुई हैं दीवारों के पीछे दिन ढूँढ रहा है पनाह एक गड्डे में; आँखें चीख रही हैं मौन  हाथ लिखते जा रहे हैं भविष्य, पैरों को भुला गई हैं सारी राहें, थकान भर चुकी हैं साँसों में। तुम आती हो तब जीवन के संताप को हरने, मैं हो जाता हूँ ग़ुम तुम्हारे हाथों की परिधि में। मिट जाती हैं व्यंजनाएँ तमाम एक प्रेम से सरोबार आलिंगन में, खुलते हैं इन्द्रियों के पैबंद चटकने लगते हैं दिनो-रात। प्रकृति के इस पुनर्जीवन पर सृष्टि-सर्जन के गीतों को गाते तुम्हारे सुकोमल गुलाबी अधर; मैं रख देता हूँ  अपने मुख को उन पर, पढ़ने को वे तमाम रतजगे विषाद के दिनों से संजोये हुए: जो कहने आयीं तुम अपने अधरों पर रखकर।                                 - कमलेश

अनजानी सी तुम

यूँ ही घूमते हुए किसी पार्क में, जब देखता हूँ वहाँ खेल रहे बच्चों को, तो मेरा बचपन हिलोरें मारने लगता है मेरे भीतर। कुछ मुस्कुराहटें जो अनजान लोगों के चेहरे पर देखता हूँ, तो ...

जब तुम्हारी याद आती है...

भूख,प्यास, भावनाएँ, सब भूल जाता हूँ, और नींद, जागना, सपने, ख्यालों को भी भूल जाता हूँ, जब मुझे तुम्हारी याद आती है... साँसे रहती हैं वहीं की वहीं, कदम ठहर जाते हैं सड़कों पर चलते हुए, रूक जाता हूँ मैं ख़ुद को लिखते हुए मौन हो जाता हूँ किसी गीत को गाते, जब तुम्हारी याद आती है मुझे... निकलता हूँ जब अपना चोला उतारकर जंगल की राह पर, देखता हूँ उसके दरख्त और सब्ज़ जमीं को तब पंछियों के चहचहाने में ढलते सूरज की रोशनी में, एक अक्स दिखाई पड़ता है वहाँ; जब मुझे तुम्हारी याद आती है... शाम के ढलते साये में जब टिका लेता हूँ अपनी पीठ उम्मीदों के घर की छत पर बनी मुंडेर से, टिमटिमाता है रात का पहला तारा आसमान के किसी कोने में, निकल आता है चाँद अचानक से, और बदल जाता है मौसम मेरे हालातों का जब तुम्हारी याद आती है मुझे...                                       - कमलेश