तुम्हारे अधर

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बारिशें खंगाल रही हैं धरती की कोख़
आंधियाँ पलट रही है तमाम वस्त्र,

लोग भूलते जा रहे हैं 
जो कुछ देखा, किया और सीखा उन्होंने,
रातें छुपी हुई हैं दीवारों के पीछे
दिन ढूँढ रहा है पनाह एक गड्डे में;

आँखें चीख रही हैं मौन 
हाथ लिखते जा रहे हैं भविष्य,
पैरों को भुला गई हैं सारी राहें,
थकान भर चुकी हैं साँसों में।

तुम आती हो तब
जीवन के संताप को हरने,
मैं हो जाता हूँ ग़ुम
तुम्हारे हाथों की परिधि में।

मिट जाती हैं व्यंजनाएँ तमाम
एक प्रेम से सरोबार आलिंगन में,
खुलते हैं इन्द्रियों के पैबंद
चटकने लगते हैं दिनो-रात।

प्रकृति के इस पुनर्जीवन पर
सृष्टि-सर्जन के गीतों को गाते
तुम्हारे सुकोमल गुलाबी अधर;

मैं रख देता हूँ 
अपने मुख को उन पर,
पढ़ने को वे तमाम रतजगे
विषाद के दिनों से संजोये हुए:
जो कहने आयीं तुम
अपने अधरों पर रखकर।
                                - कमलेश

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