प्रेम फलित होता ही तब जब जीत कर रह जाए हारा
प्रेम के वशीभूत होकर
लिखता जा रहा है वह निरंतर,
है घिरा सब ओर से
भीड़ भाव और राग से,
खोता जा रहा नित् ही
पर हर क्षण अजर एकांत में:
तुम रुको क्षण भर देखो
दीखता क्या तुम्हें पन्नों पर!
ओझल होती सूर्य-किरणें
या चाँद की चंचल पोथी पर!
मूँद लो उजले नयन यह
अनुराग-चक्षु खुल जाने को है,
प्रेम की नौका लिए हे वंशी
ख़ुद कृष्ण फिर आने को है;
ज्वार उठेगा नभ में हो ज्वलंत
घट घट पसरे चिर आनंद में,
गुंजायमान होंगे वंदन गीत
इस अमिट भाव के अभिनन्दन में:
स्पर्श करना लाँघकर तुम
सारी सीमाएँ देह पर की,
याद रखना किंतु तुम यह
है होने वाला अंतिम ध्येय,
न रहोगी फिर कहीं तुम
जग ढूँढता रह जाए सारा,
प्रेम फलित होता ही तब
जब जीत कर रह जाए हारा।
- कमलेश
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