अनजानी सी तुम

यूँ ही घूमते हुए किसी पार्क में,
जब देखता हूँ
वहाँ खेल रहे बच्चों को,
तो मेरा बचपन हिलोरें मारने लगता है
मेरे भीतर।

कुछ मुस्कुराहटें
जो अनजान लोगों के चेहरे पर देखता हूँ,
तो उनसे
न जाने कितने समय पुराना
एक जुड़ाव सा महसूस होता है मुझमें।

तुम्हें मैंने
कभी भी देखा नहीं,
तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है
किसी सिक्के की खनखनाहट सी मुझे:
मैं मिलूँगा तुमसे
नहीं जानता कि कब!
हम बैठकर करेंगे बातें
और बाँट लेंगे दुनिया में बढ़ता खालीपन,
मुझे इंतज़ार करना पसंद है भागती राहों में
उम्मीद है;
तुम्हें भी इंतज़ार पसंद आएगा।
                                   - कमलेश

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