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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तेरी तारीफ़

हजारों साल पहले किसी ने लिखी थी चाँद पर कविता, अब वह बूढ़ा हो चला है । जब भी कभी निकलता है तारों की गठरी कांधे पर लिए उससे छुट जाती है आजकल, आसमान में किसी पत्थर की ठोकर से, और बिख...

दिल के खालीपन का इश्तेहार

दिल के खालीपन का इश्तेहार यूं लगा रखा है, सारे शहर को उसकी अगुवानी में लगा रखा है । मुश्किलों से मुलाक़ात भी होती रहती है लेकिन, अभी मैंने ध्यान अपना बस उनपे लगा रखा है । वो है...

सुनना

हर कहानी की एक आंख होती है, काश हर कहानी के दो कान हो ।                                       - नागेश                     हर कहानी लिखित रूप लेने से पहले सुनी जाती है स्वयं लेखक ...

क्यों

अग्नि परीक्षा की ज्वाला में जलती हर बार सीता ही क्यों, देती है स्वयं जलकर अपने होने का प्रमाण क्यों । भय के समाज से तजता है राम उसको, कितने ही वचनों को तोड़ रघुकुल की रीति निभ...

भूत, ज़िन्दगी और प्रेम

               सारी कहानियां अधूरी होती है, जो कहानी पूरी हो जाए वो कहानी कहानी नहीं । अंत जैसी कोई भी चीज इस दुनिया में नहीं है, जिसका इंतजार किया जाए । यह कहानी भी अपना अंत नह...

मौसम

आज सुबह से बादल हैं आसमां सांवला दिख रहा है क्या यह मौसम है ? नहीं नहीं ये मौसम नहीं यह खिलवाड़ है, खिलवाड़ है मेरे अरमानों के साथ, मेरी आंखों के इंतज़ार के साथ । पलकें झुक रही ...

मेरी कविताएं

कोई भी पंक्ति या ग़ज़ल अब नहीं उतरती मेरे जेहन से पन्नों पर, कोने में कमरे के बिखरे पड़े हैं अब तक कई कहानियों के टुकड़े । दीदार के बगैर ही गला घोंटा है मैंने जाने कितने अल्फ...

याद

चित्र
हर रोज़ रात को सोने जाते वक़्त जब बिस्तर का रुख करता हूँ, तब मेरी नज़र खिड़की की जाली के पार होती हुई आसमान में टिमटिमाते एक पीले तारे पर जाकर ठहर जाती है, शायद तुम भी उस वक़्त उस तारे को देख रही होती हो ! और इस तरह हमारी नज़रें मिल जाती है । रात,  Source - Hamipara.com नज़रों की इस बातचीत और उस पीले तारे को निहारते हुए गुज़र जाती है; भोर के वक़्त उस विलुप्त होते तारे को देख, ठिठक जाता हूँ मैं, तब तुम भी तो उगता हुआ सूरज देख रही होती हो । रात भर की खलिश मिटाने अलसुबह जब तुम बना लेती हो एक चाय, ठीक उसी वक़्त मैं भी पी रहा होता हूँ वो ही चाय ! दिन को, तुम्हारी यादों की बारिश में, एक एक कर भिगो देता हूँ मैं ख्यालों के सारे पुलिंदे, तब शायद तुम भी इसी तरह भीगकर, मयस्सर कर लेती हो मेरे एहसास । किसी आलस भरी दोपहर जब काम की उहापोह के बीच, तुम खीझ उठती हो किसी पर, झल्ला उठता हूँ मैं भी, उसी वक़्त पास खड़े किसी शख्स पर लेकिन बेवजह ! थकान से लबरेज़ जब मैं, जा बैठता हूँ खुली छत पर शाम के साए में, तब गुजिस्ता लम्हों की फेहरिस्त पढ़कर एक आंसू छलक जाता ...