भूत, ज़िन्दगी और प्रेम

               सारी कहानियां अधूरी होती है, जो कहानी पूरी हो जाए वो कहानी कहानी नहीं । अंत जैसी कोई भी चीज इस दुनिया में नहीं है, जिसका इंतजार किया जाए । यह कहानी भी अपना अंत नहीं कह पा रही है, इसीलिए इसे आकार देने का मन किया, अक्सर कल्पनाएं बहुत हद तक सच सी प्रतीत होती है पर अफसोस वे सच नहीं होती । कुछ दिनों पहले ही घर लौटा, यह सोचकर कि अब नई शुरुआत करेंगे एक नई जगह से । नई जगह का नाम बस पता था बाकी कुछ नहीं मालूम था, मेरी नई शुरुआत से मुझे, मेरी प्रेमिका, कुछ दोस्त इन्हें छोड़कर बाकी सारे लोग बहुत ही परेशान थे । ख़ैर, प्रेमिका और दोस्त समझते, समझाते रहे लेकिन बाकी लोग रिसर्च करते रहे कि इस आकस्मिक कदम की वज़ह क्या थी । अरे! मैं यह बताना तो भूल गया कि हुआ क्या था, दरअसल मैं कॉलेज छोड़ आया था वो भी अच्छी नौकरी दिलाने वाला जोकि अंततः मुझे नौकर ही बनाने वाला था । घर आते ही किताबों में खुद को बंद करने की कोशिश मैंने भरपूर की, थोड़ा बहुत हो पाया लेकिन बदले में मिली ख़ामोशी जो दूसरों के लिए परेशानी बन गई । जो लोग गाहे बगाहे मिल जाते मुझसे कुछ नहीं कहते, बाद पिताजी से कहते इतना चुप क्यों रहता है यह ? जो बात मुझसे पूछनी चाहिए वो उनसे पूछी जा रही थी जिन्हें मेरी हालत का अंदाज़ा नहीं था, क्योंकि ज़िन्दगी लगातार करवटें ले रही थी जोकि मेरी नींद हराम होने का कारण था । पिताजी ने मुझसे वो सारे सवाल जो उन तक पहुंचे थे मुझसे नहीं कहे, पता नहीं क्यों ? शायद वो पूछना नहीं चाहते थे या फ़िर मुझको जवाब देने लायक नहीं समझा । एक दिन ब्राह्मण देवता पधारे, पिताजी को शक तो था ही कि कुछ ऐसा ज़रूर है जो मैंने उनको नहीं बताया । मेरी कविताएं लिखने की बात सुनकर ब्राह्मण मुस्कुराए और पिताजी के कानों में कुछ फुसफुसाए, इस घटना के बारे में मुझे बाद में मेरे छोटे भाई से पता चला क्योंकि उस वक़्त में जामफल के झाड़ के नीचे उन सब से दूर एक किताब में धंसा हुआ था। ब्राह्मण देवता कुछ कांड वगैरह की बाते करके चले गए, शाम को खाना खाते समय ज्ञात हुआ कि मुझमें भूत है । मैं खाना छोड़ना चाहता नहीं था, कहते हैं अन्न का अपमान अच्छा नहीं इसलिए जबरन ठूस लिया । प्रेमिका को रात के ९ बजे फोन लगाया और पूछा कि मुझमें भूतों वाला कोई लक्षण ? सवाल सुनकर वह समझाने पर उतर आई, जिसका तात्पर्य था कि उसे भी कुछ ठीक नहीं लगा ।
               प्रेम रहना कुछ कुछ हद तक सच झूठ के खेल जैसा है जो बचपन में खेला करते हैं, कभी लगता है यही है, कभी लगता है नहीं है । उस दिन के बाद कुछ कविताएं लिखने का प्रयास किया लेकिन कुछ लिख नहीं पाया । अचानक मुझे खबर की गई कि मुझे तांत्रिक के पास ले जाया जाएगा । जब ज़िन्दगी में गरम हवा चलती है तो आंखें ठीक से नहीं खुलती और मन करता है इसके स्रोत का पता चल जाए तो जाके उसको बंद कर दें, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता, क्योंकि साला सब कुछ मिथ्या है । गरम हवा के कारण लू लगी हुई थी सो भड़क गया ख़बर देने वाले पर कि ऐसा ना हो मैं तांत्रिक का ही भूत उतार दूं । पिताजी आपे से बाहर हो गए, कड़ी बहस हुई लेकिन नतीज़ा कुछ नहीं निकला । पुरुषप्रधान समाज में स्त्री या बाकी छोटे पुरुष दबे हुए ही रहते हैं सो फैसला पिताजी के पक्ष में चला गया । कुंठा बहुत थी सो रात के १२ बजे उठकर अपने बैग और सामान को लेकर चलने के लिए तैयार कर लिया कि बस अब भागने की देर है, लेकिन हिंदी फिल्मों की तरह प्रेमिका का तीन सालों में पहली बार १ बजे फोन आया मति तो वैसे ही नहीं थी तो उसके सामने सारी बातों की उल्टी कर बैठा । वो थोड़ी देर तक समझाती रही फ़िर अचानक से बोली "अब कहीं मत जाना लगता है मम्मी जाग गई है फोन रखती हूं", कुछ देर पहले घर से भागने का मन था पर फोन के बाद सुबह इसी मलाल में हो गई कि उसने ऐसे वक़्त पर बात क्यों नहीं की, फोन क्यों रख दिया ?
          साफ था कि घर से भागने का प्लान कैंसिल करना पड़ा । मजबूरन पिताजी के साथ तांत्रिक के समक्ष पेश हुआ और वो तांत्रिक मेरे साथ पहले पूरी सब्जी ठूस कर मुझे दो तीन घंटे, नारियल के छिलकों, अगरबत्ती और घी के धुंए में बिठाकर तंत्र मंत्र करता रहा जबकि पिताजी को ज्ञात था कि धुंए में मेरी सांसे एक मरणासन्न व्यक्ति वाली हो जाती है । पिताजी को मेरी इस तकलीफ़ का भान हाल ही में हुआ था जब उनके गुप्तचर मेरे बैग खंगाल रहे थे ( मुख्यतया पिताजी के गुप्तचर माताश्री या बहनें होती थी ) तो उन्हें मेरी मेडिकल रिपोर्ट्स मिली थी । यह राज़ पहले मेरे और प्रेमिका के ही बीच था जोकि अब सार्वजनिक हो गया था । ख़ैर उन्होंने अपनी मर्जी का काम किया उन्हें तसल्ली थी कि मेरा भूत निकाल गया वो तांत्रिक, लेकिन अगली सुबह मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी क्योंकि ठीक से सांस आए तब ना आवाज़ निकले । आंखों में क्रोध भयंकर था मेरे, मेरे सिरहाने पड़ा कागज़ पेन उठाया ( पेन और खाली पेज मेरे सिरहाने हमेशा रहता है पिछले कुछ समय से जब मैं अपने बिस्तर पर रहूं ) और घरवालों के लिए सन्देश लिखा । "भूत तो निकल गया, लेकिन ज़िन्दगी के नाम पे जो मौत आप लोग देने की कोशिश में लगे हो उसका क्या अचार डालूं ।"
                       -- कमलेश

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