तेरी तारीफ़

हजारों साल पहले
किसी ने लिखी थी
चाँद पर कविता,
अब वह बूढ़ा हो चला है ।

जब भी कभी निकलता है
तारों की गठरी कांधे पर लिए
उससे छुट जाती है आजकल,
आसमान में
किसी पत्थर की ठोकर से,
और
बिखर जाते हैं सारे सितारे ।

वो कोशिश नहीं करता है,
रास्ते के गड्ढों को भरने की
शायद
उसने तुम्हें देख लिया होगा,
जब उसकी गठरी से
सितारे बिखरे,
तो तुम्हारी हंसी के आगे
उनकी रौनक ग़ुम हो गई ।

उसने चाह रखी के
ताउम्र वह भी रहे
बिलकुल जवान ही,
मगर देख के तुम्हारा नूर
उसने इरादा बदल डाला ।

अब वक़्त
करवट ले चूका है,
मैं चाँद पर नहीं
और ना ही
तुम पर लिखूंगा कुछ,
अब जो क़सीदे
पढ़े या लिखे जायेंगे,
वो ख़ुद चाँद लिखेगा ।

जो अपनी चांदनी को
तुम पर लुटायेगा,
सब कुछ हार कर तेरे आगे
कोशिशें तमाम करेगा,
लेकिन
नाकाम ही रहेगा वो भी
मेरी ही तरह,
तेरी तारीफ़ लिखने में ।
                        -- कमलेश

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