मेरी कविताएं


कोई भी पंक्ति या ग़ज़ल
अब नहीं उतरती
मेरे जेहन से पन्नों पर,
कोने में कमरे के
बिखरे पड़े हैं अब तक
कई कहानियों के टुकड़े ।

दीदार के बगैर ही
गला घोंटा है मैंने
जाने कितने अल्फाजों का,
चिख़-चीख़कर जो शायद
ताज़ा करने की कोशिश में लगे थे
तेरी यादों को ।
हर कोई फसाना आजकल
जो बयां करता हो मोहब्बत,
अजनबी ही लगता है मुझको
जिसमें वो बेचारा आशिक़
भले ही करता हो इज़हार
अपने प्रेम का,
और चाहता हो
प्रेमिका का इकरार ।

कतई ख्वाहिश नहीं
के लिखूं तेरी सूरत सी
कोई भी ग़ज़ल अब से,
जो यादों के ज़ख्मों पर
मरहम के बजाय नमक होने लगे ।
कोई शिकायत नहीं मुझे
अपने इस मेहमान मिजाज़ से,
जो तुझसे मिलकर लौटने के बाद
चंद दिनों के लिए साथ आया है ।

चाहत है कि अब से
राज़ ही रखूं सबसे,
तेरे प्रणय को
जो गाहे-बगाहे,
झलक जाता है मेरी कविताओं में ।
                               - कमलेश

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