ख़ताओं की पवित्रता
ख़तायें, कितना छोटा और पेचीदा है यह देखने और सोचने में, लेकिन मैंने कभी इतना ख़याल किया नहीं इस शब्द पर, शायद मैं ज़रूरतों को वक़्त देने में व्यस्त था जिसका परिणाम यह हुआ कि ज़िन्दगी के लम्हें नाराज़गी का इक़रार करने लगे। तुम हमेशा से थीं मेरे हर उस पल के व्यापक अस्तित्व में, जब मैं ख़ताओं से मुलाक़ात कर रहा था। मैं नहीं जानता कि ख़ताओं को दूसरी नज़रों से देखना कितना सही है लेकिन जो सही है वह बस इतना ही है कि मेरी नज़रों को लेकर चलने वाली तुम्हारी नज़रें, जिसमें मेरी पूरी दुनिया है; मैं चाहूँगा उस नज़र को, मेरे रास्तों की ख़ताओं से मिलने और बातें करने के लिए।
हम कितना सहज होकर प्रेम कर सकते हैं, यह केवल महसूस किया जा सकने वाला पहलू है।
तुम चलती हो मेरा हाथ थामें, तो मैं जान पाता हूँ कि कितने पत्थरों से होने वाली ठोकरें बच गईं।
तुम जब जब मुझे धकेल देती हो किसी अनदेखी चीज़ को देखने के लिए, मैं देख पाता हूँ मेरी परछाई के अँधेरे में घिरे लम्हों को, जो चल रहे थे अब तक मेरे पीछे केवल इसी इंतज़ार में कि मैं मुड़कर देखूँगा कभी।
मैं शुक्रगुज़ार हूँ प्रेम का,जो तुम्हारे ज़रिये मुझ तक पहुंचता है और मैं उसकी छांव में देख पाता हूँ अपने गुनाहों और ख़ताओं की पवित्रता को।
जिसके साथ मैं, ख़ुद को खोकर, थोड़ा सा ठहरकर, जीवन को पा सकूँ।
मुझे केवल उतना ही जीवन चाहिए जितना छुपा हुआ है किसी ख़्वाब की हरियाली में।
- कमलेश
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