कविता १ (मिलन)

कुछ इंतज़ार के लम्हें भटक रहे थे
मेरे इर्द गिर्द,
तुमने आकर उनको पूर्णता दे दी।

मैं स्थिर हो चला हूँ अपने वक़्त में,
तुमने अपनी उपस्थिति से
मेरी स्थिरता को ठहराव दिया।
हम नहीं दिखे
कभी भी अलग एक दूजे से,
समानतायें जितनी उतने ही अंतर;
आँखें खुली रहें तो दिखता है ख़्वाब
और बंद करते ही छा जाती है हकीक़त।

तुमको देखना ख़ुद में घुलते हुए
बिना किसी आवाज़ के कहते हुए,
सुनना तुम्हारा सवाल कि क्या कहा मैंने!
जो मेरे प्रेम से उपजी ख़ामोशी में सुना हमने;
रात कितनी भी गहरी क्यों न हो
बीतने में वक़्त तो लगता है,
लेकिन हम वक़्त से तेज़ रहे
हमने लम्हों की पलकों के खुलने से पहले
अपनी रात को फिर तह कर के रख दिया।
                                             - कमलेश

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