किस्सा - ४ -- सच की खोज



नदी का पानी कभी भी लौट कर नहीं आता, ऐसा किसी दार्शनिक ने सालों पहले कहा था. मैं जब कभी किसी नदी के किनारे होता हूँ मेरी आँखें कुछ कुछ खोजना शुरु कर देती हैं. क्या खोज रही होती है यह आज तक जानना मुश्किल रहा है. मुश्किलें हवाओं सी होती हैं ज़रा अड़ियल और बेबाक; किसी की सुनने के लिए उनके पास वक़्त नहीं होता. ज़िन्दगी की राहों में पेड़ से ज्यादा मुश्किलों का पहरा है क्योंकि हर कदम इंसान के ज्ञान का दायरा बढ़ जाता है. जितना ज्यादा ज्ञान होगा, अंतस की वेदना उतनी ही अधिक होगी यह प्रमाणित किया जा रहा है सदियों से, इन सदियों के बीतते लम्हों में. वेदना का कवच भेदने बुद्ध भी चले थे, सालों खोजते रहे और अंत में क्या पाया; यही किअपना सच आप ही खोजें तो बेहतर है मेरा सच आपके किसी काम का नहीं’. दुनिया की तमाम किताबें हर नये गढ़ते शब्द में खोजती है अस्तित्व के कारणों को, लेखक हर दिन पन्नों की शहादत पर नाज़ चाहकर भी नहीं कर पाता. मैं खड़ा हूँ उस वृक्ष के नीचे जिसे किसी दिन गाँव के युवक ने मज़ाक में बोधि-वृक्ष कहा था, उसके सच की समीक्षा तो नहीं हो पाई किन्तु मेरी आँखों से बहता अविरल नीर उसी दरिया केआवसे जुड़ा है’; जो जाने कब से प्रेम की तरह बदल कर भी वैसी ही दीखती है, पर हकीक़त से उसका कोई नाता नहीं रह जाता.
- कमलेश

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