पल में छुपा पल

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“वह बरामदे से उठी और पास के एक अँधेरे कमरे की ओर बड़ी, कमरे के दरवाज़े पर लगी कंदील मानो उसका इंतज़ार ही कर रही थी; जैसे ही उसने कंदील को छुआ वह तुरंत उसके हाथों में आ गई. कंदील उठाये वह उस अँधेरे कमरे में कुछ देर के लिए घूमती रही और अंत में किताबों की एक पूरानी कतार में से विनोद कुमार शुक्ल की एक किताब को अपने हाथों में लिए बाहर आ गई. यह घर उसके जेहन में तब से है जब से उसने दुनिया को समझना शुरु किया था. अक्सर जब वह इससे दूर होती है यह घर उसके सपनों में आया करता है और अपनी कहानी बताते हुए उसे अपने पास आने के लिए कहता है. आज जब इतने सालों बाद वह इस घर में वापस आई है तो उसके सपनों से जर्जर हालत इस घर की हो चुकी है, उसकी यादें आज भी घर को अपने अन्दर सहेजे हुए है और शायद यही वजह रही है कि घर उसके लिए अभी तक जर्जर नहीं हुआ है. बरामदे के सामने बनी बाड़े की दीवार ज्यादा बारिश की वजह से पिछले साल गिर गई थी लेकिन आँगन से जुड़े दो कमरे अभी तक सहज और सुरक्षित थे; एक में कुछ पूरानी किताबों का ज़खीरा था और दूसरे वाले कमरे में रहने भर की जगह कुछ ज़रूरी सुविधाओं के साथ. विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते हुए वह फ़िर से एक बार किताब में रम गई और उस उपन्यास के पात्रों के जीवन में ख़ुद को तलाशने में व्यस्त हो गई. किताब में गहरे उतरते हुए पास के पेड़ पर अचानक हुए शोर से उसका ध्यान टूटा. पहली बार उसके मन में घर को इस हालत में देखकर थोड़ा सा दु:ख़ हुआ लेकिन अगले ही पल उसके होंठो पर एक मुस्कान थी. वह मुस्कुराई, बहुत देर तक मुस्कुराती रही और कुछ पलों बाद उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी. यह आँसू किस कारण से आये थे उसे जानने में उसको कोई अर्थ नहीं दिखा!”  

इन्हीं ख़यालों के भँवर में घूमते हुए उसने गुलमोहर के पेड़ से गिरते हुए फूलों को इतने दिनों में पहली दफ़ा ध्यान से देखा. वह इस वक़्त अपनी बालकनी में कॉफ़ी का आधा भरा कप लिए बैठी हुई थी और सामने से आती ठंडी हवा उसे सारी तन्द्राओं से मुक्त कर रही थी. उसने कॉफ़ी का एक घूँट पीया और फिर से गुलमोहर को निहारने लगी. यह नज़ारा उसकी हर सुबह के पलों में शामिल था किन्तु आज उसने जाना कि किसी पल में अपनी चीज़ों को छूते हुए भी वहाँ से कहीं ओर जाकर ख़ुद को जी लेने की प्रक्रिया कैसी होती है!

- कमलेश

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