मेरा मन

Source - Himachaldastak.com


बरामदे का न होना कितना खलता है! यह बात एक ऐसे घर में रहकर जान पाया जहाँ बरामदा नहीं था. मेरा मन भी बरामदा तलाशता है जहाँ बिखरा जा सके, टहला जा सके और गीली हो चुकी बातों को सुखाया जा सके. बरामदे में होकर ख़ुद को टटोलना, इस कृत्य के लिए मेरे मन में अक्सर जगह कम पड़ जाती है; इतना कुछ है बाहर का जो सारी जगह हथिया लेता है लोगों के ख़याल, बातें, यादें, लोग और अंत में ख़ुद के लिए ख़ुद में कुछ नहीं बचता. ख़ुद को छोड़कर सब कुछ है मेरे मन में जिसे बाहर निकालते हुए मुझे एक असह्य दर्द उठता है जिससे डरकर में ख़ुद के पास जाने से रुक जाता हूँ. दुनिया जितने चक्कर लगाती है उसमें एक चक्कर मन का भी हो ऐसा मेरा मन चाहता है ताकि पूरे मन का कोना कोना घूमा जा सके और अन्दर पल रहा ताप दूर करने का जो भी जतन हो किया जा सके. मन का ताप हरने के फेर में दुनिया को बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण, ईसा, पैगम्बर और न जाने कितने ही रत्न मिले लेकिन मेरा मन उसे हरना नहीं चाहता यह तो बस उसे समझना चाहता है.

     कमरे की खिड़की के उस पार एक लम्बी छत है जहाँ से अक्सर एक लड़की अपने आपको लगाये गये पंखो से उड़ने का जतन करती है और इस प्रक्रिया में उसकी ख़ूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है जिसको देखकर आसपास की कई जोड़ी आँखें अपने यौवन का taste ले लेती है. ये सारी आँखें ख़्वाबों में जीना सीखती है सिर्फ उस लड़की को देखकर और मेरा मन खुलापन चाहता है उस तरह जैसे उस लड़की का यौवन; किन्तु मैं हर बार अपने मन की आबरू की चिंता में रुक जाता हूँ. जब जब पानी की फुआरें आती हैं मन मचलने लगता है और नई दास्तानें गढ़ता है जिसमें मेरा मन अपने जलते ख्यालों को ठंडक देना चाहता है जोकि तृप्ति तक पहुँचने में असमर्थ है लेकिन ठीक उसी समय वह लड़की अपनी छत पर अपने सीने से दुपट्टा हटाये अपने यौवन के नयेपन को पानी के साथ घोल देती है जो ख़ुद एक तृप्ति है; मेरा मन चाहता है कि उसके यौवन को आज़ादी और तृप्ति एक साथ देने वाला पानी जब तक फिसलकर नीचे गिरे उससे पहले वह उसमें भीग जाए.

- कमलेश

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