ज़िन्दगी का किस्सा
मैंने कभी नहीं सीखा
बाढ़ के पानी सा बहना,
मुझे हमेशा लुभाता
शांत नदी में तैरना,
मैंने कभी कोशिश नहीं की
सांसों को धुएं में उड़ाने की,
मुझे भाता देर तक
पेड़ों के नीचे बैठना।
मैं कभी नहीं रह पाया
किसी भी बंद कमरे में,
मैं कभी नहीं मान पाया
परिवार के बनाए हुए कायदे,
मुझे बहुत भाती थी
खुली हवा और सड़कों पर घूमना
मुझे बंधना नहीं था
किसी खूंटे पर
इसलिए तोड़ता रहा सारे वादे और उम्मीदें।
वादे आपको प्रेम महसूसने नहीं देते
पर मैं डूबना चाहता हूं इस समन्दर में,
मैं नहीं जता पाता अफसोस
वादे के टूट जाने पर,
मैं चाहता था केवल भटकना
इसीलिए चुन लिए कई रास्ते,
मैं मंज़िल को नहीं चाह पाया
तो बना लिया एक ही लक्ष्य
कोई भी पड़ाव ज़िन्दगी का
मुझे थामने से डरता है अब,
क्योंकि मैं समझ चुका हूं
दुनिया की हर ज़रूरत को,
मैं भटकता रहा पहुंच कर मंज़िल पर भी
मैं खोता रहा खुद को ढूंढ कर भी,
लेकिन अब मैं बख़ूबी जानता हूं
कि मुझको क्या चाहिए,
मेरी चाहत है कि मुझे कुछ न मिले
ताकि आख़िरी सांस तक भी मैं
सहज होकर प्रेम करता रहूं ।
-- कमलेश
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