योजनाएं, हकीक़त और सरकार


पेट्रोल और डीजल के दामों का घोर विरोध कर जनता का मन 2014 में पूरी तरह मोह लेने वाली सरकार के राज में दोनों की कीमतें पिछले 7 सालों में अपने उच्चतम स्तर पर हैं। कर वसूलने के नाम पर अंधाधुंध वसूली और लूट मचाने का सरकारी तरीका ईजाद किया है सरकार ने, केंद्रीय कर असल कीमत का 24-26% और राज्य कर 20-25%, लेकिन इन करों की उपयोगिता का कोई प्रमाण सरकार अब तक नहीं दे पाई है। न ही इनको जीएसटी से बाहर रखने का उचित कारण अभी तक जनता के सामने आया है। हाल ही में एलपीजी सिलेंडर के बढ़ते दाम फिर से इन्हीं सवालों को उठाते हैं कि क्या देश की इकोनॉमी का बढ़ता फिगर ही सब कुछ है, उसके आगे आम आदमी की जेब, मजदूरों की रोटी और किसानों की ज़िन्दगी कोई मायने नहीं रखती?
               साल के पहले क्वार्टर में जीडीपी अपने ऊंचे स्तर पर पहुंची है जिसे सब के द्वारा देश का विकास सूचक करार दिया जा रहा है, तो फिर रुपए के गिरते दाम किस की तरफ इशारा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब शायद सबके पास है लेकिन कोई भी उसे स्वीकारने को तैयार नहीं, रुपए और डॉलर के युद्ध में रुपए को देश की साख बताकर सबका दिल जीत लिया था तब वर्तमान सरकार ने लेकिन अब कोई भी स्पष्टीकरण नहीं दिया जा रहा। अगर विदेशी वस्तुओं का उपभोग इतना ही प्यारा है तो फिर रुपए की चिंता भी नहीं होनी चाहिए किसी को भी, अगर यही एक मात्र कारण है तो। बिजली का पहले निजीकरण किया गया और बाद में उसे जीएसटी के स्लैब से बाहर कर दिया गया, शराब के लिए यह उपाय कारगर नजर आता है, लेकिन जब देश ख़ुद अपने लिए बिजली उत्पादन कर सकता है तो निजीकरण क्यों ? आंकड़े सरकार के ही हैं कि 20,000 गांव अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, और 7.68 करोड़ लोग बिजली से वंचित हैं, जबकि भाषण में देश विकसित हो गया है।
Source - thequint.com

             किसानों की दुगनी आय और कर्ज माफी को मुद्दा बनाया गया था, तो किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं का कारण क्या है? कोई नहीं जानता। देश की आबादी का 68% हिस्सा गांव में बसता है और देश की 51% आबादी, कृषि पर निर्भर करती है लेकिन उनके लिए केवल वादे और योजनाएं जैसे कि भावांतर लेकिन उसमें भी भाव नहीं मिलता, चुनाव नजदीक आते ही 150 रुपए बोनस बांट दिया जाता है, लेकिन बाकी जरूरी चीज़ों  की कीमत में कितनी वृद्धि हुई, और क्यों हुई ? इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं। रोजगार की बात करें तो गांव के लोगों का शहरीकरण का हिस्सा होना बिलकुल सहज ही ग्रहण कर लिया गया है लेकिन रोजगार वहां भी नहीं है, पिछले 6 सालों में बेरोजगारी का आंकड़ा 8.7% से 13.27% हुआ है और नोटबंदी ने इसमें थोड़ा और इजाफा किया था जोकि 1.8% की वृद्धि थी, सरकारी आंकड़े हैं जो उन्होंने पेश किए हैं।
              महिला सशक्तिकरण और सुरक्षा भी केवल वादों और घोषणाओं में मिलती हैं, क्योंकि अब भी प्रतिदिन 72 से ज्यादा बलात्कार के मामले रोज दर्ज किए जाते हैं, और इन मामलों के 90% से ज्यादा केस में अपराधी कोई रिश्तेदार या जानने वाला होता है। अपराधों की संख्या पिछले कुछ सालों में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है, जिनमें मोब लिंचिंग और सांप्रदायिक हिंसा भी शामिल हैं, इनकी रोकथाम के लिए न कोई कानून बना है और न ही कोई ठोस कदम उठाए गए हैं। धर्म और राजनीतिक मानसिकताओं के चलते इंसानों और जानवरों के प्रति हिंसा के खिलाफ केवल कड़ी निन्दा, खरी खरी और आश्वासन ही मिलते आएं हैं, और तो और विभिन्न अपराधियों का उत्साहवर्धन करते देखे गए हैं सरकार के कई नेता अब तक, जिनका कोई स्पष्टीकरण नहीं मिला देश को।
              स्वास्थ्य और स्वच्छता के आंकड़े जरूर कुछ बढ़ते हुए से लगते हैं लेकिन संतोषजनक नहीं, हालांकि गरीबी का प्रतिशत अब भी उतना ही है, जितना कि पहले था, लेकिन सरकार कहती है कि उन्होंने 14 करोड़ परिवार गरीबी से मुक्त कर दिए, लेकिन हकीक़त कुछ और ही है। शराब जीएसटी से बाहर रखी गई तो खुले में पी जा सकती है, लेकिन देश की महिला आबादी का 12.09% हिस्सा, जो सैनिटरी नैपकिन का उपयोग कर पा रहा है, वह उसे काले पेपर में छुपा कर ले जाता है और इस आंकड़े को बढ़ाने के लिए बहुत ही कम काम हुआ है। उज्ज्वला योजना के तहत गैस चूल्हा तो सबको मिला लेकिन उसे रिफिल करवाने की दिक्कतें जस की तस ही रही, क्योंकि फिलिंग स्टेशन की संख्या कम है, ऊपर से आसमान छूते दाम उपभोक्ताओं की बची कुची उम्मीदें भी तोड़ते जा रहें हैं।
               पर्यावरण और उससे संबंधित मुद्दे काफी हद तक संतोषजनक नहीं हैं लेकिन चिंता का विषय जरूर बने हुए हैं, क्योंकि सिर्फ विकास के दम पर ही सब कुछ हासिल नहीं हो सकता, उसके लिए पर्यावरण और मानव कलापों का सामंजस्य बना रहना बहुत ही अहम भूमिका निभाता है, और उसके लिए शहरी विकास के साथ ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना अत्यंत आवश्यक है, लेकिन हकीक़त पूंजीवाद की तरफ झुकती दिखाई दे रही है। एक तरफ देश के जाने माने संस्थानों को पैसे की दिक्कतों से जूझना पड़ रहा है तो दूसरी तरफ कागज़ों में बनी जिओ यूनिवर्सिटी सरकार से 1000 करोड़ का ग्रांट हासिल कर रही है और उसके लिए नियमों में बदलाव तक किया जा चुका है।
                कुल मिलाकर कुछ आंकड़े स्वीकारने योग्य तो बहुत सारे सिरे से नकार देने वाले रहे हैं, तानाशाही और मनमानी के लिए तो जो कुछ कहा जाए कम ही है। सरकार बनने के 1 साल बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने एक भाषण में कहा था कि "सरकार नई है इसका मतलब यह नहीं कि आपातकाल के आसार खत्म हो गए." तब न तो जीएसटी था, न नोटबंदी और न ही सरकार का इतना विरोध, तब किस मंशा से यह बात कही गई थी यह अब सब समझते हैं। देश के लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की बढ़ती चाटुकारिता, उसके प्रति उपजा अविश्वास और लोगों की अंधभक्ति ने इस पक्ष को और मजबूत ही किया है। एक तरफ जहां सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबाया जा रहा है, देश के लोगों को तमाम झूठी खबरें और गलत इतिहास बताकर गुमराह किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ गुनहगारों को पनाह दी जा रही है, खुले आम लोग लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं। इन पर कोई कार्यवाही नहीं बस विरोधियों पर प्रहार और गुमराह करने की रणनीति ताकि सरकार की नाकामियों और गिरती साख तथा लोकप्रियता की ओर किसी का ध्यान न जाए।
                 जितना एक आम आदमी अपनी जगह रहकर कर सकता है, उतना हम सब कर रहे हैं और करेंगे, जो नहीं जानते कि यह सब गलत है वक़्त रहते चेत जाएं। आगामी वक़्त इससे भी खतरनाक होगा या अच्छा इसे हमारे बढ़ते कदम ही तय करेंगे, विचारों में मतभेद होते हैं, होंगे लेकिन देशहित के लिए अपनी कुंठाओं और ईर्ष्या को खत्म कीजिए। समय आपकी राह देख रहा है, नहीं तो एक दिन सबका हिसाब हो ही जाना है।
                                                  - कमलेश

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