जब इश्क़ उतरने लगता है
उनींदी आँखों से सपने चूती उम्मीदें
जब तकियों पर सिर पटकते हुए,
अपनी मौत का
रोना रोते रोते थक जाती है;
तब बिस्तर की सिलवटों की ज़ंजीरें
ख़ामोशी में चीख़ती बातों को,
वैसे ही निगल जाती हैं जैसे
जुगनुओं की ज़िंदगियाँ
निगलती जाती हैं रातें।
मैं सोता हूँ बायीं करवट जब भी
तो दायीं आँख सपनें नहीं
हकीक़त देखती है हर बार,
लेकिन यह दृश्य उलट देने पर
पहले जैसा तो कतई न रहे
ऐसी मेरी ख़्वाहिश है,
लेकिन आँखों से
कोई परछाई लटकती है,
जब कोई सामने नहीं होता।
रात अपनी आपबीती सुनाती है
जब उसके दाहिने बैठता हूँ
मैं किसी दिन बड़े इत्मिनान से,
मैं उसे अपने जैसा ही पाता हूँ
सकल चराचर में फैलता हुआ,
ख़ामोशी की चिल्लाहट में फिर
कोई आवाज़ टपकती है पलकों से,
जब इश्क़ उतरने लगता है।
- कमलेश
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें