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Source - Bharatkhabar.com

पिछले हफ्ते गांव घूमने के लिए गया हुआ था, इस बार चुनावी चहल पहल के साथ साथ और भी कई सारी चीज़ों ने ध्यान आकर्षित किया। कुछ लोगों से उनके बच्चों के भविष्य के बारे में बातचीत हुई, जिसमें उन्होंने शिक्षा से उपजी बुराइयों और उनसे जुड़ी नकारात्मक चीज़ों का हवाला देते हुए यह ज़ाहिर किया कि वे अपने बच्चों को आगे की शिक्षा के लिए नहीं भेजना चाहते। गांव के लोगों का शिक्षा व्यवस्था के प्रति ऊपजता यह अविश्वास बेहद गंभीर विषय है, जिस पर हमें यानि कि युवा वर्ग को मंथन करने की ज़रुरत है कि किस तरह इस अविश्वास का समाधान किया जा सकता है और सरकार को हम किस तरह से प्रभावित कर सकते हैं! इसके बाद मेरी बातचीत के विषयों में राजनीति और सरकार की विभिन्न योजनाओं का भी हिस्सा रहा, जिसमें लोगों ने राजनीतिक दलों और साथ ही सरकार के प्रति अपने मतों को ज़ाहिर किया जिनमें उनका अविश्वास व्यवस्था के प्रति यहाँ भी झलका,अपनी आकांक्षाओं का अधूरा रहना किसे नहीं खलता! जिस तरह से लोगों ने सरकार की विभिन्न योजनाओं और कलापों का घटनाक्रम पिछले कुछ समय में देखा है,उनकी चिंताओं की फ़ेहरिस्त बढ़ती ही गयी है। अपने और परिवार के लिए ज़िन्दगी को झोंक देने वाले किसानों की आपबीती भी कुछ इसी तरफ इशारा करती है कि पिछले कुछ सालों में उन्हें किसी भी दल की सरकार से अपेक्षित मदद नहीं मिल पायी है।
              बढ़ते पूंजीवाद को भी कुछ चर्चा में चिंता का विषय मानकर बातें हुई हैं, केवल और केवल धन के पीछे भागती दुनिया में कुछ लोग अब भी केवल दो जून की रोटी से संतुष्ट होने का ख़्वाब देख रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि गांव में हमेशा सादा जीवन जीने की शिक्षा दी जाती रही है लेकिन कुछ वर्षों में शहरीकरण से उपजी परेशानियों और आकर्षण में से अब लोग आकर्षण की तरफ झुकते नज़र आते हैं, इसका कारण शायद उनकी अधूरी आशाएं हो सकती है जिसे हमारा विज्ञान युग अभी तक पूरा नहीं कर पाया है, या यूँ कहें कि पूँजीवादी लोगों ने ही इसका भरपूर फायदा उठाया और जरूरतमंद लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करके उनका शोषण किया। प्रशासन की ओर भी जनता, खासकर ग्रामीण लोग अब उतने भरोसे से नहीं देखते जितना कि पहले के समय में देखा जाता था, यहाँ भी अविश्वास की जड़ मजबूर लोगों को समय पर समाधान न मिलने की प्रशासन की प्रथा को, लोग प्राथमिक रूप में देखते हैं।

        ख़ैर सरकार और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास आम रहा है लेकिन पिछले कुछ दशकों में लोगों के बीच आपसी मतभेद आश्चर्यजनक रूप से बढ़ते हुए दिखाई पड़ते हैं, अपने समुदाय के साथ ही सामंजस्य बैठाना कुछ लोगों को सबसे बड़ी मुसीबत लगता है। विचारों के मतभेद उनकी कार्यशैली और जीवन को भी नकारात्मक तरीके से प्रभावित करते हैं। सहयोग की भावना से जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच बढ़ती दूरियाँ हमारी आधुनिकता पर सवाल खड़े करती है, एक तरफ हमने बाकि हिस्सों में प्रगति की, किन्तु दूसरी ओर हम जीवन जीने की कला में पिछड़ते ही रहे। चिंता का विषय यह है कि आस पड़ोस में रहने वाले लोगों का अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देते जाना लगातार बढ़ता जा रहा है, चाहे फिर वह गांव हो या शहर; कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता। सहयोग की भावना का लगातार घटते जाना और जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने की प्रथा का उद्घाटित होना हमारे समाज की कमजोरियों को दर्शाता है। किसी भी घटना के प्रति आज अधिकांश वर्ग, चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण अपनी जिम्मेदारी को समझने के लिए आगे आने से कतरा रहा है, हमारा यह गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार हमें गर्त के सिवा और कहीं नहीं ले जायेगा।
               आज के समाज की दिक्कतों को समझकर उनकी जिम्मेदारी निभाने का हमारा कर्तव्य बनता है, जिसको हमें सर्वोपरि मानकर चलना होगा ताकि हम अपने समाज पर लगे गैर-जिम्मेदाराना होने के लांछन को हटा सकें। और प्रेम, करुणा, सद्भाव और सहयोग की भावनाओं के साथ अपना जीवन जीकर तथा साथ ही अन्य लोगों को इसके लिए प्रेरित कर एक नए समाज की नींव रख सकें, जो एक आदर्श समाज के तौर पर आगे भी स्वीकारा जाये।
बाकि अपने आदर्शों से जीवन को उत्कृष्ट बनाये रखने की कोशिश हमेशा करते रहिये।
प्रेम और शुभकामनाएं
                                                - कमलेश

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