सब का मैं

चंद हफ़्तों से मेरी नींद
ख़ुद टूटने की आदी हो गयी है,
कुछ ख़यालों को मेरे कान सुनते हैं
जो कभी मेरे नहीं रहे, फिर भी
उनकी खनखनाहट सुनता हूँ मैं
जैसे किसी बच्चे की भूखी आवाज़ में,
खनकता है पांच रुपए का सिक्का।

मेरी कमीज़ पर अब कोई
रंग नहीं चढ़ता, जो डुबोई थी मैंने
नीले रंग में पिछले शनिवार,
टकरा जाया करता हूँ भरे बाज़ार
अपनी ही शक़्ल के किसी इंसान से,
आईना चाहे कुछ भी दिखाए
मुझे एक ही सूरत दिखाई पड़ती है।

पुकारता हूँ जब कभी में किसी को
उसको नाम मेरा ही सुनाई देता है,
पढ़ता हूँ गीता में विराट स्वरूप की व्याख्या
तो मेरा ही वर्णन लिखा होता है,
मुझे ऐसा लगता है कि
यह सारी घटनाएं
मुझसे मेरा 'मैं' वापस ले रही हैं,
और मैं थोड़ा थोड़ा कर के
सब का 'मैं' होता जा रहा हूँ ।
                                 - कमलेश

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