ज़िन्दगी का पर्याय - घर


ज़िन्दगी के रास्तों में
ख्वाबों की खटपट जारी है
पिताजी जब घर से फ़ोन करते हैं,
तो चेहरे पर मुस्कान तारी होती है
और दिल में एक नया ख्याल पनपता है,
बहुत दिन हुए माँ की आवाज़ सुने भी;
सपने तो सारी दुनिया एक जैसे देखती है,
बस चलते हुए घड़ी का वक़्त हाथ में नहीं रहता।
मैं खींच रहा हूँ,
पेड़ की जड़ में अटकी रस्सी
घर की ख्वाहिश है कि देखे मेरी सूरत,
मैं लेकिन लिपट कर सोना चाहता हूँ
दादाजी के पुराने कम्बल से;
चार नए आम के पेड़
भैया-भाभी ने लगा दिए हैं घर के आगे,
बस पिताजी और माँ के साथ
नीम के नीचे रखे तख़्त पर बैठ चाय पीना बाकी है:
कुछ रातें चूल्हे के सामने बैठकर,
बतियाना चाहता हूँ जी भरकर भैया-भाभी से।
बच्चों के साथ मिट्टी में खेलते हुए
खुद को भुला देना चाहता हूँ,
आम तोड़ने हैं कभी उचककर मुझको
जब कोई ज़िद करे कि आम चाहिए उसे।

ज़िन्दगी से चार ख़्वाब
मैं अपने हक़ की तरह ले लूँगा,
आम, नीम, चाय, तख़्त और बातें
मेरे बच्चों से ले लिया है मैंने ये उधार,
प्रेम की परछाईयाँ
जो खनकती है मेरे पहलुओं में,
चाहता हूँ कि मुझे चाँद की तरह देखने वाली
लड़की के हिस्से में भी बराबरी से बिखरे:
घड़ी के रुकने से पहले
सुकून से घर लौटना चाहता हूँ मैं।
                                      - कमलेश 

तस्वीर के लिए शुक्रिया दीक्षा...

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