ज़िन्दगी और रास्तों का चुनाव


लगभग सारे ही किनारों पर
पसरी हुई हैं ख़ामोशियाँ
पिछले कुछ दिनों से,
जहाँ खनकती थी कभी ख़ुशियाँ।

फैलती जा रही है यह दुनिया
वैश्वीकरण के सिद्धांतों तले,
सिमटता जा रहा है पर इंसान
अकेलेपन से उपजे अवसादों में।

सामने आए हुए दो रास्तों में,
मैंने हर दफ़ा वही चुना
जिस पर चलकर
मुझे हमेशा लगता रहा कि
मैं ख़ुद की परतें उतारने में लगा हूँ।

आज खेत की मेड़ पर बैठे बैठे
ऐसा महसूस हो रहा है जैसे,
खोज रहा था उम्र भर से जिसको
छुपा हुआ था वह मेरे प्रेम के तरीकों में।

कल फ़ोन पर बतियाते हुए मित्र ने कहा
कि 'should' और 'can' में से जिसे चुनोगे,
वही तुम्हें परिभाषित करेगा!
मैं चुन चूका हूँ वह राह
जो आज़ाद है 
मेरी परिभाषाओं और वक़्त से,
लेकिन धँसा हुआ है गहरे तक
ज़िन्दगी को देखने के मेरे तरीकों में।

- कमलेश

शुक्रिया वसुधा जी इस तस्वीर के लिए...

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गांव और देश का विकास

मुझे पसंद नहीं

सहमति और हम - भावनात्मक जीव