फिर मैं कविता लिखता हूँ ।


इन अंधियारों के बाहर जाकर
मैं अंधियारों में झांकता हूँ,
उन दरवाजों के भीतर जाकर
मैं दरवाजों में देखता हूँ,
तुम जो चाह रहे हो सुनना
कभी ना तुमसे कहता हूँ,
निकलकर खुद से बाहर
फिर मैं कविता लिखता हूँ |

टूटे हुए को जोड़कर
फिर नए सिरे से चुनता हूँ,
समेटकर बिखरे हुए इंसान  
नित नए खिलोनें बुनता हूँ,
जिनको कर दिया है विलुप्त
तुमने बच्चों के बचपन से,
छीन लिया जिनको तुमने
अपने वजूद के सपनों से,
मत ग्रास करों यूँ इनको
एक बच्चा बन यह कहता हूँ,
पाकर सब कुछ खो देता जब
फिर मैं कविता लिखता हूँ |

तुमको वाजिब लगता है
यूँ उठाना सवाल मेरे शब्दों पर,
पूछता हूँ मैंने कब कहे हैं
कोई शब्द ही अपने कथनों में,
बन चूके ग़ुलाम तुम औरों के
इस क़दर के खुद को भूल गए,
ना देख पाए आईना भी तुम
फिर मुरझाये से फूल हुए,
अब भी नहीं कहता हूँ तुमसे
बस खुद को यह समझाता हूँ,
जुड़ जाता हूँ बिखरकर जब
फिर मैं कविता लिखता हूँ |
                               .....कमलेश.....  

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