नदी और समंदर
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सालों-साल के अपने
बर्फीले आँगन को छोड़कर,
वो चल पड़ती है
हरियाली साड़ी ओढ़े,
चाँदनी का आलेप लगाए,
चट्टानों का
सुनहरा गहना पहने,
मछलियों का काजल आँजे,
फूलों की लाली
अपने अधरों पर सजाकर,
कल कल करती
पाजेब पहनकर,
हर पड़ाव पर
प्रेम बिखेरती हुई,
अपने प्रियतम के आँगन
पहुंच जाती है,
अपने पिता
पर्वत को विस्मृत कर,
तब सूर्योदय की लालिमा से
अपनी प्रेयसी की
मांग भरकर,
वह उसे
अपने आगोश में समेट लेता है,
और
इस तरह
नदी समंदर में मिल जाती है ।
बर्फीले आँगन को छोड़कर,
वो चल पड़ती है
हरियाली साड़ी ओढ़े,
चाँदनी का आलेप लगाए,
चट्टानों का
सुनहरा गहना पहने,
मछलियों का काजल आँजे,
फूलों की लाली
अपने अधरों पर सजाकर,
कल कल करती
पाजेब पहनकर,
हर पड़ाव पर
प्रेम बिखेरती हुई,
अपने प्रियतम के आँगन
पहुंच जाती है,
अपने पिता
पर्वत को विस्मृत कर,
तब सूर्योदय की लालिमा से
अपनी प्रेयसी की
मांग भरकर,
वह उसे
अपने आगोश में समेट लेता है,
और
इस तरह
नदी समंदर में मिल जाती है ।
.....कमलेश.....
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