दुनिया

छाते को निकाला आज
तो पाया कि उसमें जंग लग गई है,
घर में रखे बरसाती कपड़े
दीमक के खाने के काम आते हैं अब,
बारिश और पेड़
रेगिस्तान में पानी की ख्वाहिश से लगते हैं ।

रहने वालों से ज्यादा इस शहर में
चलते हैं सड़कों पर वाहन,
सिगरेट नहीं पी कभी भी ज़िन्दगी में
पर एक साल से यह शहर
हर रहवासी को मुफ़्त देता है चालीस रोज़,
सांस लेता हूं यहां
तो लगता है खाते से 86 रुपए कट गए ।

पैरों पर चलते थे कभी
शाम की रोटी के जूगाड़ के लिए,
अब भागते हैं उसे भूल हड्डी के पीछे
जैसे भागता है कुत्ता लार टपकाते हुए,
हड्डी किसने डाली पता नहीं
पर सबकी हड्डियां टूटती जा रही हैं,
पानी को 20 रुपए में खरीदता हूं
ख़ुद ही खराब करके साफ करने के बाद,
पास बहती नदी अब नदी नहीं
सबसे बदबूदार नाला हो गई है ।

स्कूल में कुछ डेस्क खाली दिखती हैं
परसों कुछ बच्चे जाम में खड़ी कारों के पास,
मंडराते हुए दिखाई पड़े थे
न जाने अब वो कहां हैं !

योजनाओं की भूख नहीं है उनको
वादों का नाश्ता नहीं करता कोई,
दो वक़्त की रोटी और सिर के लिए छत
बस यही चाहत लिए फिर रहे हैं सब के सब,
ये सब वही हैं
जिनकी बेटी बचाओ का वादा करके भी
एक दिन में 72 बलात्कार हो रहे हैं,
फिर भी नवरात्रि तो चार बार मनाते हैं ।

दूध भैंस भी तब ही से देती आ रही है
जब से वह दुनिया में अाई है,
गाय शायद इंसान से कीमती है
इसलिए रोज़ कोई गाय बच जाती है हमसे,
लाशों की उतनी बू नहीं सालती शायद
जितना गोबर भाता है,
खेत पर जाता हूं कभी आवारा पशु भगाने
तो मेरी कितनी फसल खाएगा पहले सोचता हूं ।

रास्ते पर चलता हूं जो आजकल तो
लोगों के अरमानों के गड्ढे दिखते हैं,
बात करता जब कोई सड़क या कारखाने की
तो घर जाकर सोचता हूं कि
इस बार कितने हाथ कटेंगे !
बारूद के ढेर पर बनता है जब कोई घर
तो खयाल आता है,
पेट्रोल का कुआं कितना गहरा हो गया है ।

पगतलियों में छाले भी नहीं पड़ते पहले जैसे
परसों पांव में जूता काट गया था,
घर आकर देखा तो
घाव पर खून नहीं लालच रिस रहा था ।
                                                 - कमलेश

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