पथिक
राह चलते उस पथिक को
आँखे मेरी जब देखती है,
अमीट आस मेरे नयन से
उसकी आँखे जब देखती है ।
नही होती जिसके स्वप्न में
कोई विराट अट्टालिका,
है दृश्य उसके स्वप्न का
सुख की छोटी चादर का ,
आश्रय में जिसके उसकी जिव्हा
ग्रास कुछ सूखी रोटी करती है,
कर प्रफुल्लित मन के उसको
जो जीवन में ज्योति भरती है ।
सृष्टि को यह खबर नही है,
मीनारें उसकी डोलती है,
जब निगाह उठती पथिक की
माया की नगरी रोती है,
दीवारें अपने वैभव पर
करुण क्रंदन फिर करती है,
जिनके झूठे कायाकल्प से
आँख उसकी पर्दा करती है ।
.....कमलेश.....
( दिल्ली के एक झकझोर कर रख देने वाले दृश्य का प्रत्यक्ष गवाह बनने के बाद )
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