तुम, मैं और मोक्ष
कभी दरिया में बहता
कभी किनारों से टकराता,
किसी उपवन में ठहरकर
कुछ पल को सुस्ताता,
चला जा रहा है मन
मेरा एक मंजिल की ओर ।
सफर अकेले शुरू हुआ
मगर अब थोड़ी तन्हाई साथ है,
कुछ तारीखें याद बन चूकी
जाने कितनी अभी बाकी है,
सुरत देखी है कितनो की
कई मुलाक़ातें अभी होनी है ।
तब स्वप्नरंजित लोचन लिए
एक झोंके सी तुम आई
यही कुछ तीन कैलेंडर बदले,
तब से ऐसा लगता है
जैसे जीवन का सुर बदलकर
मधुमय संगीत हो गया है ।
प्रतिपल तुम्हे अर्पित करता हूँ
मेरे मन में उपजा प्रेम,
जिसकी अखंड, अविरल ज्योति
इस तमस में जलाई है तुमने,
जुड़कर तुम्हारे जीवन से मन
अब स्वच्छंद हो गया है ।
पथरीली राहों पर चलते हुए
तुम्हारे मिल जाने से,
जीवन की इस नाव को
भवसागर भी मिल जाएगा,
बस थामे रखना होगा विश्वास को
जब तक कि वह पड़ाव आएगा,
मानिंद होगें जहाँ हम इक दुसरे की
और रगों में समाया होगा नित प्रेम,
जुड़ जायेगी दोनों रुह आपस में
परे होकर इस मृत्युलोक से,
इक दूजे में समाहित होकर
फिर हमें मोक्ष मिल जाएगा ।
.....कमलेश.....
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें