कहानी ( सामान्य से शून्य )

सुबह के चार बजे शशांक बिस्तर से निकलकर छत पर जाकर टहलने लगा, वह शायद किसी सपने से जाग गया था ऐसा उसकी आँखों को देखने पर अनुमान लगाया जा सकता था | पूरी रात बिस्तर पर माहौल से अनभिज्ञ होकर लेटे रहने का मतलब सोना नहीं होता, लेकिन आँखों को अधूरे ख़्वाबों को देखने की तलब हो तो आसानी से सोया जा सकता है | कुछ मिनट बेचैनी में टहलकर वह वापस कमरे में आकर आराम कुर्सी पर जा गिरा, आराम कुर्सी से ठीक 30 डिग्री के कोण पर एक खुबसूरत आईना मकान बनाने वाले इंजिनियर ने शायद यही सोचकर लगाया था कि कोई भी शख्स बगैर किसी ज़हमत के कुर्सी पर बैठे-बैठे ख़ुद को निहार सके | ख़ुद की शक्ल को ज़रा गौर से देखने पर शशांक ने पाया कि आज उसकी आँखों के आकार में कोई अंतर आ गया है, क्योंकि उसकी दायीं आँख बायीं वाली आँख से कुछ छोटी दिखाई पड़ रही थी पहले पहल उसे लगा कि शायद कोई कीड़ा काट लिया होगा लेकिन वजह कुछ और ही थी | दरअसल हुआ ये था कि उसकी बायीं वाली आँख ने एक सपना देखा जोकि उम्मीदों से उलट अधूरा छुट गया था वहीं दायीं वाली आँख ने दिल की ख्वाहिशों को मुकम्मल करता एक दूसरा सपना देखा था, तो ज़ाहिर सी बात है बायीं वाली आँख अपनी नाराज़गी जता रही थी | ये थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन दो आँखें एक ही ख़्वाब एक साथ कभी देख ही नहीं सकती, दोनों आँखें अपनी दुनिया में जीती हैं यह बात और है कि उनकी आदतें लगभग एक जैसी ही हैं, पर आदतें एक सी होने की वजह से वह एक जैसे सपने देखने के काबिल नहीं हो सकती | शशांक अभी कुर्सी पर बैठा हुआ ही था कि सवेरा दूध का पैकेट लेकर दरवाजे पर दस्तक देने आ पहुंचा, उसे काफ़ी दिन हो चुके थे सवेरे के हाथों ख़ुद दूध का पैकेट लिए हुए क्योंकि उसके उठने तक सवेरा शशांक का इंतज़ार नहीं कर सकता था उसे ढेर सारे काम होते हैं जोकि उसको दिन चढ़ने से पहले निपटाने होते हैं ताकि सारी दुनिया सुनियोजित ढंग से चल सके |  

  

              शशांक दूध का पैकेट लेकर किचन में गया और मदमस्त होकर सो रहे बर्तनों को जगाने लगा ताकि उसे एक लज़ीज़ चाय का सुख मिल सके, चाय पीने के लालच में बर्तनों ने गैस चूल्हे को परेशान करना शुरू कर दिया | किचन में चल रही इस आपाधापी के बीच शशांक नहाकर तैयार हो गया, और फोटो-फ्रेम वाले अपने चाय से भरे कप को हाथों में लेकर वह एक बार फिर आराम कुर्सी पर जाकर धंस गया जिस पर उसकी और तान्या की एक फोटो लगी थी | वह कप तान्या ने उसके पिछले जन्मदिन पर उसे गिफ्ट किया था, शशांक अभी तक ख़ुद को दिसम्बर में हुए तान्या के साथ वाले झगड़े से उबार नहीं पाया था शायद इसीलिए उसने फिर मिलने की आस को जिन्दा रखने वाले इस कप को अभी भी अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाकर रखा था | रोज़ सुबह चाय पीते समय वह कप उसे बीते हुए 20 महिनों की यादों में उलझा दिया करता और शशांक एक मकड़ी के जैसे ख़ुद के बुने हुए जाल में बुरी तरह फंसता चला जाता, लेकिन आज उसे न जाने क्यूँ तान्या का चेहरा और उसके साथ गुज़ारा हुआ वक़्त याद नहीं आया | दायीं आँख अब तक फिर से अपने सामान्य रुप में आ चुकी थी, शायद उसका देखा हुआ सपना ही शशांक की दिक्कतों का नायाब हल था जो उसे नए सिरे से शुरुआत करने के लिए प्रेरित कर रहा था | तभी शशांक तेज़ी से उठा और किचन में चाय के नशे में धुत बर्तनों पर पानी छिड़ककर उनका सारा मज़ा किरकिरा कर दिया, अपने हाथ में उठाये खाली कप को पहले उसने फ़र्श पर फेंका और बाद में उसे अपनी ज़िन्दगी से बेदख़ल करने का फ़रमान जारी कर दिया जिससे पूरे वातावरण में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी केवल बायीं वाली आँख को छोड़कर क्योंकि उसका बिछाया हुआ जाल दायीं आँख ने धूल में मिला दिया था | शशांक एक गैर सरकारी संस्था सुबोध के द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में प्राइमरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने जाया करता था जो उसे आज कई दिनों बाद फिर से उसकी संजीवनी जैसा महसूस हुआ, वह नए उत्साह के साथ, लेकिन भूत को वर्तमान की ताकतों से हराकर फिर से नई यात्रा पर बैरागियों सा चल पड़ा था | ज़िन्दगी का आनंद भूतकाल के साथ रहने में नहीं है और न भविष्य की फ़िक्र को गले लगाने में, ज़िन्दगी का मज़ा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान की बाहें थामें उसके साथ मस्ती करने, उससे अपने दिल का हाल साझा करने और रोज़ रात बिस्तर पर उससे लिपटकर सोने में होता है |   

                                                             आज शशांक को स्कूल के माहौल ने एक अनोखे सुकून का एहसास करवाया, बीते महिनों में पहली बार आज उसने अपने स्कूल के बच्चों के जोक्स सुने और उनके साथ बैठकर उनके ही टिफ़िन से खाना भी खाया | खूबसूरती गुलाब की वह कली है जिसे धूप खिलने का इंतज़ार है और आज शशांक धूप बनकर उस गुलाब पर पड़ा और सारी फ़िज़ा में अपनी खूशबू बिखेर दी, खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं होता इसे जब चाहो तब कली से फूल बनाकर माहौल को रंगीन बनाया जा सकता है लेकिन अफ़सोस कि सारी दुनिया यह तरकीब नहीं जानती | आज स्कूल में जी भरकर ख़ुद को जी लेने पर शशांक अपने काम से बेहद संतुष्ट नजर आया, शाम को घर जाने से पहले वो अपनी संस्था के डायरेक्टर के साथ डिनर के लिए चला गया । निर्मल ने शशांक को उनके अगले प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि अगर तुम इसे लीड करोगे तो मुझे बड़ी ख़ुशी होगी । शशांक भी उत्साह से लबरेज़ था तो उसने ख़ुद को निखारने की उम्मीद से भरे इस काम से एतराज़ नहीं किया |  डिनर के बाद डायरेक्टर उसे यह कहकर चला गया कि वह प्रोजेक्ट फाइल्स ईमेल कर देगा, जिनको देखकर वह जितना जल्दी हो सके उसे फीडबैक दे । कुछ काम के पीछे कारण ढूंढने की ज़रूरत नहीं होती और वो सारे काम जो दिल से किए गए हैं उनका अंत भी वही है जो हमारा होना है यानी कि शून्य । शशांक को पिछले 3 सालों में अपने काम के प्रति कभी भी कोई अलगाव महसूस नहीं हुआ था, पर पिछले कुछ दिनों से वह ठीक से काम नहीं कर पा रहा था लेकिन आज फिर से उसमें पुराने वाले उत्साह को देखकर ही डायरेक्टर ने उसे अगले प्रोजेक्ट के लिए चुना था । घर आकर शशांक ने ईमेल चेक किया और नए प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी पता चलने पर वह एक चिर परिचित मुस्कान अपने होठों पर बिखेरे बिस्तर पर लेट गया ।

                अगली सुबह जब शशांक उठा तो उसे किसी भी काम को निपटाने में बोझ महसूस नहीं हुआ । अपनी चाय पीकर वह निकल पड़ा स्कूल के लिए, जब ज़िन्दगी में बहानों की कमी हो जाए तो ज़िन्दगी खूबसूरत होती जाती है । शशांक को आज अपने डायरेक्टर के साथ बैंगलोर के रेड लाइट एरिया में विजिट करने जाना था, निर्मल के लगातार प्रयासों से ही सुबोध का कुछ दिनों पहले ही बैंगलोर की एक दूसरी संस्था निर्माण, जो वैश्यावृति कर रही महिलाओं की उससे बाहर निकलने में मदद कर रही थी, से टाई अप हुआ था ताकि सुबोध में काम कर रहे सारे लोग, इनकी मदद के ज़रिये इस महत्वपूर्ण मुद्दे की जानकारी पाकर खुद को और सुबोध को नई दिशा दे सकें । शशांक और निर्मल की मुलाक़ात निर्माण के डायरेक्टर और कोर टीम के साथ होना तय हुई थी, जिसके बाद उन्हें एक दो घरों का निरीक्षण भी करना था ताकि वे वहां की महिलाओं को जान सके । 2 से तीन घंटे की लंबी बातचीत के बाद निर्मल, शशांक और काव्या जोकि निर्माण की डायरेक्टर थी अपने दो साथियों के साथ, इन दोनों को वहां के रहवासियों से मिलवाने चल दी । मकान नंबर 63 पर जाकर, काव्या ने सभी को सीढ़ियों से होकर ऊपर आने का इशारा किया, सीढ़ियां किसी भी मकान के हाथ होती हैं जो उसमें आने जाने वालों का स्पर्श महसूस करती है, कभी कभी नाराज़ हो उन्हें गिरा देती है शायद कोई उनको बदसलूकी से छू लेता होगा । सीढ़ियां एक अबूझ पहेली बनकर घर की हमेशा रखवाली करती है, उसे पता होता है कि उस पर पड़ने वाले पैर गरीब हैं या अमीर, बीमार हैं या तंदुरुस्त या फिर अच्छे हैं या बुरे । अपने पैरों को थोड़ी थोड़ी जहमत देकर सारे लोग दूसरे माले पर पहुंच गए । वहां सबने पहले पानी पीया और फिर काव्या ने उर्वशी से सबका इंट्रोडक्शन करवाया, उर्वशी तकरीबन 30 साल की थी इस मोहल्ले में रहने वाली सबसे युवा औरत । वह खुशी से फूली नहीं समाई जब उसे इन सबके आने का कारण निर्मल ने उसको बतलाया, उर्वशी केवल शरीर से थोड़ी सी कमजोर दिखती थी बाकी मन से तो अभी बहुत ताकतवर और बहुत सारी आकांक्षाओं को संजोए हुए उड़ने के सपने देखा करती थी । थोड़ी देर तक उर्वशी सबसे बातें करती रही लेकिन न जाने क्यों उसने अपने आप को थोड़ा सुरक्षित रखने की कोशिश करते हुए निर्मल और शशांक से ज्यादा बात नहीं की, वो उनसे पहली बार मिल रही थी यह भी एक कारण हो सकता है । कई दफा पहली मुलाक़ात या तो सारे दरवाज़े खोल दिया करती है या बंद कर देती है, लेकिन इस मुलाक़ात में तो घर के अंदर का इंसान आधा दरवाज़ा खोले बाहर खड़े आंगतुक को लेकर ही असमंजस में था । शाम के चार बजे वे सारे लोग निर्माण के कार्यालय आए और 10 दिन के बाद सारे लोगों का मिलना तय करके वापस चले आए, शशांक और निर्मल भी समय हो जाने से सीधे अपने अपने घर को निकल गए । घर आने के बाद भी, शशांक की आंखों से उर्वशी का चेहरा और कानों से उसकी आवाज़ गई नहीं थी, वह केवल और केवल उसी के बारे में सोचे जा रहा था और इसी उधेड़बुन में उसने कब खाना खाया और कब सो गया, इस बात का उसे भान ही नहीं रहा ।

                                          शशांक के अगले दस दिन इसी बात को सोचते हुए बीत गए कि उस दिन जब वो उर्वशी से मिला था तो उसमें ऐसा क्या ख़ास था जो उसे लगातार उसकी ओर खींचे जा रहा था, वह काम के ज्यादातर वक़्त में सिर्फ उर्वशी के ख्यालों में खोया रहता | दस दिनों के बाद जब वो अपनी टीम के सारे लोगों के साथ फिर से निर्माण के ऑफिस पहुंचा तो आज न जाने किस बात से खुश था, वैसे ज़िन्दगी में खुशियां बेवजह ही रहे तो ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि जब उनकी कमी हो जाती है तो इंसान उनकी वजह  ढूंढने में वक़्त ज़ाया कर देता है और आख़िर में नाकाम होकर फिर से अपने खुशियों के खो जाने के ग़म में खोया खोया सा रहने लगता है | उस दिन सुबोध टीम के कार्यकर्ताओं ने उर्वशी के साथ साथ और भी महिलाओं से बातें की, जो उर्वशी की पड़ोसनें थी और सखियाँ भी, उर्वशी के साथ बातें करने के लिए शशांक को काफी वक़्त भी मिला जिसमें उसने जाना कि किस तरह से उर्वशी समाज के निष्ठुर व्यवहार के कारण यहां आने पर मजबूर हो गयी और ज़िन्दगी के अँधेरे से भरे हुए पहलु को अपने आने वाले वक़्त में उजाला देने की आस को सच मानकर अपना बना लिया था | उसे उर्वशी से कुछ अलग ही लगाव महसूस हुआ बल्कि वहां महिलाएं तो और भी थी जिनको उन अँधेरी गलियों से निकलने के लिए किसी न किसी सहारे की ज़रुरत थी, ज़िन्दगी के अधिकतर लम्हों में इंसान सहारों के भरोसे पर ही जीता और अपने कदम बढ़ाता चला जाता है जबकि वो इस बात को नहीं जानता कि एक दिन उसके हाथ से ये सारे सहारे फिसलकर गिर जायेंगे और वह अकेला हो जायेगा, या पता नहीं शायद जानता हो फिर भी खुशफ़हमी में रहने के लिए उस सच से अनजान रहने की कोशिश करता हो | प्रोजेक्ट के शुरू होने के कुछ दिनों बाद से ही शशांक अब फुल-टाइम रेड लाइट एरिया में ही काम करने लगा था, उर्वशी से रोज़ रोज़ की मुलाक़ात, बातें और ढेर सारे  मिलकर बांटे हुए पल उसे न जाने कब बहाकर एक ऐसे रास्ते पर ले आये जिसका उसको कोई पता ही न था, ज़िन्दगी के रास्ते अगर खुद के पैरों से तय न किये जाएं तो अक्सर वे हमें भटका देते हैं, शशांक भी शायद भटक ही चूका था अब केवल वह ख़ुद से, अपने घर में लटके पंखे से जो उसे हर रात तन्हाई का एहसास दिलाता था, अपने किचन के बर्तनों से जिन्हें किसी के आने का बेसब्री से इंतज़ार था और घर की दीवारों से जो उससे चीख़ चीख़कर वही सवाल किया करती थी, सुबह-ओ-शाम बस एक ही सवाल पूछता था कि जो जज़्बात पिछले कुछ दिनों से उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा बने हैं क्या वे वाकई हकीक़त हैं ? आज जब शाम को वह घर लौटा तो उसके सवालों का जवाब किसी पहाड़ की तरह उसके सामने आकर खड़ा हो गया, खाना खा लेने के बाद जब शशांक अपने पिछले दिनों की एल्बम देख रहा था तब उर्वशी की ढेर सारी तस्वीरों को देखकर, जिनमें से कई उसके साथ भी खिंचवाई हुई थी, उसे महसूस हुआ कि उसे अब और इंतज़ार नहीं करना चाहिए | प्रेम में इंसान का अपेक्षाहीन हो जाना ही प्रेम की सर्वोच्च अवस्था होती है लेकिन शशांक को अभी तक इस दिव्य ज्ञान की जानकारी नहीं थी, तो उसने उर्वशी के सामने अपने सारे जज़्बातों की उल्टी करना ही ठीक समझा ताकि वह सवालों के जाल से बाहर निकल सके, प्रेम में कोई जाल नहीं होता न तो वादों का और न ही ख्वाहिशों का |               

                                     शशांक जब सुबह उठा तो एक अजीब सी उलझन उसकी आंखों में तैर रही थी, अनमने ढंग से उसने अपना सारा काम निपटाया और वर्क प्लेस के लिए निकल पड़ा । कुछ बातों को ढोकर चलना अच्छा नहीं होता, भलाई इसी में है कि वो बेकार सा बोझ उतार फेंके और रास्तों को अपने खुले कंधो के साथ तय करें न की बोझ के तले दबकर । प्रेम बोझ नहीं होता क्योंकि उसमें वज़न ही नहीं होता, प्रेम हल्का भी नहीं होता उसे हम छू नहीं सकते न ही देख सकते हैं फ़िर भी प्रेम हवा की तरह हमें जब चाहे तब छूकर गुज़र जाता है और हमें बस उसकी छुअन महसूस होती है । शशांक उर्वशी के साथ बैठकर बातें कर रहा था तभी उसे एक झोंका महसूस हुआ और उसने अचानक अपनी बातों का रुख़ दुनिया से ज़िन्दगी और फिर प्रेम की ओर मोड़ दिया, उर्वशी को दर्शन की जानकारी नहीं थी लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं था कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था । शशांक बातचीत के बहाव में वो सारी बातें भी कह  बैठा जिनको कहने के लिए उसे इतने दिनों से डर सताए जा रहा था, अपनी बातों का पुलिंदा लपेटने की नाकाम कोशिश ने उर्वशी को इस बात का यकीन दिला दिया था कि शशांक झूठ नहीं कह रहा था । प्रेम में झूठ के लिए कोई जगह नहीं होती अगर वह सच की नींव पर खड़ा हो लेकिन एक समय ऐसा आता है कि तब उसे ज़ारी रखने के लिए इन दोनों में से किसी की भी ज़रूरत नहीं होती । उर्वशी ने शशांक से वक़्त नहीं मांगा शायद उसे इसकी ज़रूरत भी नहीं थी वह खामोश बैठी एकटक उसे देखती रही तभी अचानक किसी के बुलाने पर शशांक को उधर जाना पड़ा और वह फिर मकान नंबर 63 में अकेली हो गई लेकिन आज उसे ये दीवारें अजनबी लग रही थी वह ख़ामोशी जिसके साथ वह पिछले 3 सालों से रह रही थी आज उसे अपनी सबसे बड़ी दुश्मन दिखाई पड़ी । उर्वशी काफ़ी देर तक पता नहीं क्या सोचती रही और फ़िर अचानक उसकी आंखों से आंसू बह निकले, पर आज के आंसुओं और दूसरे दिनों के आंसुओं में भी उसे फ़र्क महसूस हुआ । शशांक कब वापस आकर उसके सामने बैठ गया था इस बात का उसे पता भी नहीं चल पाया वह बस अपने में खोई हुई थी शायद बहुत दिनों बाद उसने ख़ुद को इतने करीब से देखा था, जिससे उसके मन में न जाने कौन सा डर पैदा हो गया और जैसे ही उसे ज्ञात हुआ कि शशांक वहीं बैठा है वह उससे बोल पड़ी । " शायद तुम नहीं जानते ज़िन्दगी के रास्तों को ये पहाड़ों से भी गुजरते हैं और समन्दर से भी, लेकिन समाज के मैदान में आने के बाद इन पर रेत बिछ जाती है और सारे रास्ते रेत की आंधी में गुम हो जाते हैं, मैं इस आंधी का शिकार तुम्हें होते हुए नहीं देख सकती तुम चाहो तो मुझे बुरा कह सकते हो लेकिन सच यही है कि हम दोनों कभी एक न हों यही हमारे लिए और हमारी ज़िंदगियों के लिए सही रास्ता है, जिन्हें बचाकर हम बाद में कभी भी मिल सकते हैं ।" जब प्रेम में कुछ कहने को बाकी नहीं रहे तो प्रेम मुकम्मल होने की राह पकड़ लेता है, भलाई इसी में है कि उसे सन्नाटे की राह पर जाने दिया जाए ताकि वह कहीं भटक सके, अपनी मंज़िल पाने के लिए । शशांक को भी कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या बोले, वह उसे बिना कुछ कहे ही वापस लौट आया और निर्मल को अपनी प्रोजेक्ट लोकेशन बदलने की रिक्वेस्ट मेल कर दी ।

                            निर्मल ने शशांक के द्वारा किये गए आवेदन का बखेड़ा ऑफिस में खड़ा कर दिया, सारे लोग शशांक की ट्रान्सफर की ख्वाहिश का राज़ जानना चाहते थे लेकिन सबको असफलता ही हाथ लगी क्योंकि शशांक ने ठान लिया था कि चाहे जो भी हो इस घटना की जानकारी किसी को भी नहीं पता लगनी चाहिए | शशांक आखिरकार अपने दोस्त और बॉस निर्मल के साथ एक लम्बी बहस के बाद उसे मनाने में कामयाब रहा था, अब उसका नया कार्यस्थल नेल्मंगला गाँव था जहाँ वह फिर से एक लो-इनकम गवर्नमेंट स्कूल के साथ काम करने वाला था | शशांक अपने पुरे साजो समान के साथ लगभग लगभग नेल्मंगला गाँव में ही बस गया था जहाँ उसके कई सारे नए दोस्त बने, यहाँ ख़ास बात यह थी कि शशांक को कभी खाना बनाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती थी रोज़ाना किसी न किसी घर से उसके लिए खाना खाने का निमंत्रण आ जाया करता था | गाँव के लोगों के लिए वह उनके बच्चों का मास्टर था जोकि उनके मत में उनके बच्चों का भविष्य बनाने के लिए ही शहर छोड़कर गाँव आ गया था, गाँव में मिलने वाले अपनेपन और प्रेम की तुलना योग्य कोई दूसरी भावना इस दुनिया में है ही नहीं | थोड़े दिनों में ही शशांक अपनी सारी यादों को मिटाने में कामयाब रहा था जिसमें गाँव के सारे लोगों का बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहा था, शशांक पूरे मन से स्कूल में काम कर रहा था और उसके मिलनसार व्यक्तित्व के चलते उसे और स्कूल के बच्चों बड़ी जल्दी ही सकारात्मक परिणाम मिलने आरम्भ हो गये थे | दिवाली की छुट्टियों के बाद सुबोध से एक और वालंटियर नेल्मंगला गाँव आया ताकि वह शशांक के साथ रहकर अपनी फ़ेलोशिप पूरी कर सके, सुलोचना दिल्ली की एक बेहद धीर-गंभीर लड़की जिसने हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन कम्पलीट की थी और 7 महीने की फ़ेलोशिप के लिए सुबोध को ज्वाइन किया था | उसकी फ़ेलोशिप के आख़िरी दो महीने उसे शशांक के साथ उसके सानिध्य में रहकर पूरे करने थे ताकि अपने काम के लिए वह और ज्यादा मजबूत हो सके, दो महीनों के दिन यूँ ही हँसते, मुस्कुराते, मस्तियाँ करते और एक-दूजे की चुटकियाँ लेते गुज़र गए थे, जब हम किसी में डूब जाते हैं तब हमें वक़्त के गुजरने का बिलकुल भी पता नहीं चलता और प्रेम में तो कभी नहीं |
          दिसम्बर 23, यही तारीख थी जब सारे गाँव वालों ने मिलकर सुलोचना की विदाई और उसके अनुभव को और भी यादगार बनाने के लिए एक छोटा सा आयोजन रखा था तो जाहिर सी बात थी कि शशांक भी आमंत्रित था | बीते दिनों में पहली बार शशांक ने महसूस किया कि वह फ़िर से अकेला हो जायेगा उस दिन शशांक को वो सारी सज्जा खलने लगी, रौशनी के लिए गाँव वालों के द्वारा लगाई गई आग से उसको सहानुभूति होने लगी | आग हमेशा जलती रहती है जब भी उसे पुकारा जाए लेकिन किसके लिए यह कोई नहीं जानता ! शशांक उस छोटे से आयोजन के अगले दिन में चला गया था वहीँ एक खाद की थैली पर बैठे-बैठे, वह ख़ुद को निरीह होते देख रहा था, वह देख रहा था कि किस तरह प्रेम ने एक बार फिर उसकी ज़िन्दगी में दस्तक दी और किस तरह वह बिना उसकी शक्ल देखे ही लौटने वाला था | लेकिन इस बार शशांक को ऐसी कोई अभिलाषा नहीं थी कि सुलोचना उसके साथ रहे, वक़्त बांटे और वगेरह वगेरह, इस बार वो इस बात से खुश था कि वह अपने प्यार को ख़ामोशी से जाते हुए देख सकता था वह इस बात से ख़ुश था कि इस दफ़ा उसे बातों का विष नहीं पीना पड़ेगा क्योंकि इस दफ़ा उसने अपने आपको किसी के सामने ज़ाहिर नहीं होने दिया था | आयोजन समाप्त हुआ और सुलोचना शशांक की बगल में आकर बैठ गई उसने ही शशांक का सपना तोड़ा और कहा कि वह उसके साथ बैठना चाहती है, ख़ामोशी से भरे कुछ लम्हें बांटना चाहती है जिनमें केवल वह दोनों रहें उनके सिवा कोई न हो | शशांक ने सुलोचना की इस ख्वाहिश को मुकम्मल किया और सारा वक़्त चुपचाप बैठकर गुज़ार दिया, अगले दिन सुलोचना चली गयी लेकिन उसकी यादों का एक बड़ा सा गठ्ठर शशांक के लिए पीछे छोड़ गई जिसको वह शायद अब उसे ढोने के ही मूड में था, शशांक ने जनवरी के अंत तक जैसे तैसे मुश्किल भरे लम्हों को काटा और फ़िर तीन महींनों की छुट्टी की एप्लीकेशन निर्मल को भेज दी |
               अपने तीन सालों के कार्यकाल में कभी भी छुट्टी नहीं लेने वाले की एप्लीकेशन कैसे कैंसिल होती, निर्मल ने सोचा और उसे आराम देने के बहाने से शशांक की रिक्वेस्ट मान ली गई, और तोहफे के तौर पर निर्मल ने उसके के लिए बॉम्बे जाने का टिकट भी भेज दिया जो 5 फ़रवरी का था | शशांक 6 तारीख़ की सुबह अपने बॉम्बे वाले रूम पर पहुंचा, इस रूम को रूम कहना बेईमानी होगी क्योंकि शशांक ने यह फ्लैट ही ख़रीद रखा था जो अब तक किराये पर दिया हुआ था लेकिन शशांक के आने से पहले खाली कर दिया गया था | शशांक बॉम्बे आने के बाद अक्सर बार वगेरह में जाने लगा था, पहले तो वह कभी कभार ही पीया करता था, पर अभी शायद हाल ही में हुई घटनाओं के चलते रोज़ाना ही पीने लगा था, सिगरेट तो वह पीता ही नहीं था लेकिन अब उसने वह भी शुरू कर दी थी | जब तक बेवजह ज़िन्दगी में ख़ुशियों का आना-जाना लगा रहता है तभी तक ही इंसान ख़ुद को संभाले रखता है जैसे वह आना बंद करती है, हम उसकी वजह तलाशने निकल पड़ते हैं और जब वजह नहीं मिलती तो मारे ग़म के पागल हो ज़िन्दगी गुज़ारना शुरू कर देते हैं, शशांक के साथ बिलकुल ही समान हालत थे और वह भी धीरे-धीरे ज़िन्दगी के बिछाए जाल में फंसता चला जा रहा था | उसकी शराब की लत एक बोतल से तीन-चार तक पहुँच गई थी, और सिगरेट तो लगभग हर पल उसकी अँगुलियों के बीच दम तोड़ती हुई नज़र आ ही जाया करती थी, ज़िन्दगी के सुख की वजह तलाशने निकले शख्स का ये अंजाम होगा कोई सोच नहीं सकता लेकिन नियति जो चाहती है वह होकर ही रहता है | नियति जब तक मेहरबान होती है आपको आंसू शब्द भी पता नहीं होता लेकिन जब वह खफ़ा हो अपना असल रंग दिखाती है तब आप अपना नाम तक भूल जाते हैं, शशांक भी नियति के फेंके पासों में उलझता रहा और प्रेम की राहों में मिलने वाली अपेक्षाहीनता की अवस्था को झेल नहीं पाया और अपनी ये हालत कर बैठा | प्रेम को आप अपनी ज़िन्दगी की तमाम ख्वाहिशें दे दीजिये वह बदले में आपको पूरी ज़िन्दगी लौटा देगा बशर्ते आप कोई शर्त, कोई उम्मीद न रखें, प्रेम में व्यक्ति अपने “आप” को खो देता है और समभाव की ओर चल देता है और ये समभाव उसे उस मंजिल पर ले जाता है, जहां केवल और केवल प्रेम होता है दूसरी भावनाओं और चीज़ों के लिए वहां कोई स्थान ही नहीं बचता |
                   शशांक का नशा जिस तरह बढ़ रहा था उसके कम होने के कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहे थे, लेकिन अचानक ही एक दिन वह अपने नशे को काबू में करने के यत्न करने लगा | चार से पांच बोतल रोज़ाना पीने वाला शख्स अब धीरे-धीरे अपनी नशे की मात्रा को कम करने की कोशिशों में जुटा हुआ था, वह शायद किसी ब्रह्मज्ञान से परिचित हो गया था ऐसा उसके बातें करने के ढंग से अंदाज़ा लगाया जा सकता था | बोतल से घट कर शराब की मात्रा अब केवल दो या तीन पैग तक ही सीमित रह गई थी और सिगरेट भी शशांक, शायद दिन के आठ पहर की गिनती से पीने लगा था | एक ऐसे ही दिन जब वह नाउम्मीदी की चरम सीमा पर पहुँच गया तो उसने दुनिया के सारे सिद्धांतों को अपनी ज़िन्दगी से बेदखल कर दिया, इस संसार में किसी भी घटना के लिए उसके पास कोई कारण नहीं बचा था और न ही अपने अतीत के लिए भी जो उससे कोई पूछता भी नहीं था और शायद पूछने वाला भी नहीं था | सारी क्रियाओं को गंतव्यहीन करार देकर और उनकी नींव को खोखला साबित करके शशांक अपने बार में मिलने वाले गिने चुने साथियों के बीच अब लोकप्रिय हो चला था, किसी शाम चौराहे पर बैठकर सारे लोगों को भावनाहीन कहना और सारे कलापों की आलोचना करना ही अब उसके हिस्से बचा हुआ था, जिसे वह बख़ूबी निभाता चला जा रहा था |
            जब उसके नशे की मात्रा दो पैग और तीन सिगरेट पर सिमट गई तो वह कहीं भी जाने के बजाय अपने घर में कैद होकर रहने लगा, एक मात्र बोतल जिसे वह तीन दिन पहले ख़रीद कर लाया था या शायद किसी ने उसे तोहफे में दी थी, पता नहीं लेकिन उसके पास लगभग दो पैग ही शराब बची हुई थी जो आदत के मुताबिक़ आज ख़त्म हो जानी थी | वह शाम को उठा करता था सारी रात जागने के बाद, उसके कमरे की मेज़ पर एक शराब की बोतल रखी हुई थी जिसका ढक्कन खुला पड़ा था और पास में दो ग्लास रखे हुए थे, आज महफ़िल हमेशा से कुछ अलग थी क्योंकि और दिन केवल एक ही ग्लास रखा होता था | शशांक गुसलखाने से निकल कर आया और लड़खड़ाते क़दमों के साथ सोफे पर जा गिरा, थोड़ी देर उठने की जहमत के बाद वह फ़िर ठीक से बैठ गया और उसने बोतल की बची हुई शराब को दोनों ग्लास में बराबर बराबर भर दिया जैसे वो आज उनका हिसाब किताब निपटा रहा हो | उसने शराब डालने के बाद सिगरेट जलाई और दो तीन कश के बाद वह अचानक से अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा रहे लोगों को कोसने लगा और जब तक सिगरेट ख़त्म होती उसके आंसुओं ने मैदान जमाना शुरू कर दिया था, शशांक शायद अपने अवचेतन मन से रो रहा था जिसका उसे आभास नहीं हुआ था | उसने दूसरी सिगरेट जलाई लेकिन उसे जलता छोड़ वह एक ग्लास उठा कर फूट-फूट कर रोने लगा, उसने ख़ुद ही ख़ुद को समझाया और जोर से घोषणा की “यह जाम मेरी बर्बाद ज़िन्दगी के नाम” और उसे पी गया,दूसरी सिगरेट अभी तक आत्महत्या कर चूकी थी लेकिन शशांक को शायद अब उससे कोइ सरोकार नहीं रह गया था | उसने दूसरा ग्लास उठाया जिसे वो पी जाने की हालत में भी नहीं था और दूसरी घोषणा की “यह जाम मेरी मौत के नाम”, जब तक शराब उसके होंठो से मिलकर उसे यह चिरंजीवी अमृत पीला पाती वह ग्लास उसके हाथ से नीचे जा गिरा, जिसकी आवाज़ पुरे कमरे में गूँज उठी और एक खामोश ज़िस्म सोफ़े के ऊपर किसी शहीद सिपाही की तरह गिर पड़ा | उसके ज़िस्म में जान बाकि थी या नहीं इस बात की पुष्टि करने वाला वहां पर सिवाय उसके कोई नहीं था |                                                
                                                 - कमलेश

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