नाश्ते की टेबल

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क लड़का अपनी थोड़ी सहमी और थोड़ी उत्सुक शक्ल लिए नाश्ते की टेबल पर बैठा हुआ था। कुछ नए चेहरों को उसने ख़ुशी से देखा और उनकी ओर पहचान बढ़ाने के लिए उठकर चल दिया। कुछ ही समय बाद नाश्ते की टेबल पर हँसी का ठहाका गूँज गया, नए मिले दोस्तों के साथ अब बातों ने ठिठोली की राह पकड़ ली थी। नाश्ते के बाद सारे लोग वहाँ से उठकर आसपास घूमने के लिए चल दिये, पास के बगीचे में पानी छोड़ा हुआ था किसी ने। अचानक नए दोस्त सूरज ने नली उठाकर सबको गीला करना शुरु कर दिया, अकस्मात हुए हमले से बचने के लिए सबने अपने रास्ते खोजने की कोशिश की लेकिन एक लड़की वहीं मुस्कुराती हुई सूरज के इस कृत्य पर थोड़ी ख़ुश थोड़ी नाख़ुश सी ठहर गई। कुछ देर की मस्ती के बाद जब सब ने फोटो सेशन शुरू किया तो उस लड़की ने सबकी हँसते हुए फोटो लेने पर जोर दिया। वह इसी तरह मुस्कान को अपने चेहरे पर रख सारा दिन घूमती रही और सबसे पहले नाश्ते की टेबल पर पहुँचने वाला लड़का अपने प्रोग्राम के पहले दिन को जी लेने में जुट गया। एक लड़का जिसका नाम हम क्या रख सकते हैं, चलो कृष्ण रख लिया जाए और लड़की को कोई न कोई नाम देना ही पड़ेगा नहीं तो नाश्ते की टेबल पर शुरु हुआ किस्सा सूरज ढलने के साथ खत्म हो जाएगा, तो लड़की का नाम रखा बाँसुरी। शाम को कृष्ण ने अपनी कुछ देर पहले लिखी हुई कविता बाँसुरी को सुनाई और उसे वह बहुत पसंद भी आई, दोनों की कुछ देर पहले शुरु हुई बातचीत लड़की के होस्टल पर पहुँच जाने की वजह से दम तोड़बैठी।

         यहाँ दिन बहुत सलीके से गुज़र रहे थे पर अपने दिनों को इतने सस्ते में गुज़ारना न तो कृष्ण को आता था और बाँसुरी ने तो हाल ही में सीख लिया था कि दिन सस्ते में तो गुज़र ही नहीं सकते। फिर भी दोनों समय की बंदिशें के साथ उसकी अपनी चाल चल रहे थे, प्रोग्राम के पाँचवे दिन शाम ढलने से पहले, खेल खेलते समय बाँसुरी ने कृष्ण और उसके नए बने दोस्त उसे अगर यायावर नाम दिया जाए तो ग़लत नहीं होगा, को गेंद के साथ खेलते हुए देखा तब उसने इच्छा जताई कि उसे भी सीखना है गेंद को हवा में उछालना और फिर पकड़ लेना। कृष्ण ने दो दिन की मेहनत और बास्केटबॉल कोर्ट पर बातचीत का घोल पिलाकर आख़िरकार तीसरे दिन यानि कि प्रोग्राम के आठवें दिन तक बाँसुरी को थोड़ा बहुत गेंद पकड़ना और ठीक से उसे उछाल देना सीखा दिया था। प्रोग्राम के आख़िरी दो दिनों में जितनी बेचैनी बाँसुरी के मन में थी उतनी ही कृष्ण के मन में भी थी कि हम सब कहाँ हैं! क्या कर सकते हैं? और यह दोनों भी बाकी दोस्तों की तरह ही कुछ ढूँढ ही रहे थे और इन्हें पता भी नहीं चला कि जिस चीज़ को ये ढूँढ रहे थे ये वही हो गए थे। कुछ लोगों की उपस्थिति को दोनों ने अपने सारे दोस्तों के साथ मिलकर जिया, जिन्होंने सबको कुछ न कुछ तो दिया ही था, क्या दिया था! इसका जवाब मुश्किल है। प्रोग्राम इसी तरह चलते चलते अपनी अंतिम दिन तक पहुंच गया लेकिन यह दिन एक नई शरुआत थी। बीच की कई घटनाएं छूट जाना लाज़मी है जब कोई अपना ध्यान हर पल पर केंद्रित कर दे और ऐसी घटनाओं की फ़ेहरिस्त अगर देखें तो जैसे कि बाँसुरी ने कृष्ण को साथ बनारस चलने का न्यौता दिया जिसे कृष्ण ने टाल दिया, बाँसुरी और कृष्ण के कितने अच्छे दोस्त बन गए और अब सब वापस अलग हो रहे थे, बाँसुरी कृष्ण का इतिहास जानती थी और कृष्ण बाँसुरी का वर्तमान, दोनों अपने सभी दोस्तों के साथ कितनी बार रोये थे इसे कोई नहीं गिन पाया और इसी क्रम का हिस्सा बनकर एक दिन सुबह 9 बजे की ट्रेन से कृष्ण वापस आ गया और बाँसुरी उस नाश्ते की टेबल को अंतिम बार देख बनारस के लिए चल दी।
                                 - कमलेश 

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