दीवाली, धोखा और खुशख़बरी

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र्ण अपनी बर्थ पर लेटा हुआ था और किसी किताब के पन्नों पर लिखे शब्दों को बिना रुके पढ़ता चला जा रहा था, वह किताब उसने स्टेशन से चलते वक़्त शुरु की थी कुछ 6 घंटे पहले। रात के आठ बज रहे थे और ट्रेन किसी स्टेशन के आउटर पर खड़ी अपने सिग्नल की बारी का इंतज़ार कर रही थी, तभी कर्ण का फोन घनघनाया और उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट फैल गई, उसके फोन की स्क्रीन पर एक संदेश आया था। मैत्री, उसकी बहुत ही क़रीबी और अज़ीज़ दोस्त, उसने संदेश भेजा था यह याद दिलाने के लिए कि जब वह उससे मिले तो अपने हाथ से बना खाना लेकर आये मैत्री के लिए। कर्ण मैत्री के संदेश के जवाब के बारे में बिना सोचे अपने रात के खाने के इंतजाम में लग गया, और फिर सुबह के लिए कोई बहाना खोजकर सो गया। कर्ण ने इस साल की दीवाली अपने घर, गाँव और बाकी लोगों के साथ बिल्कुल उसी तरह मनाई जिस तरह वह पिछले 7 सालों से मनाना चाह रहा था। मैत्री भी दीवाली तक अपने घर आ गई थी और ख़ुशी, प्रेम और दुलार का रंग ही रंग हर तरफ बिखरा हुआ दिखाई पड़ रहा था। दोनों ही लोग अलग अलग जगह, अलग अलग लोगों के साथ दीवाली मना रहे थे लेकिन उनके जज़्बात उतने ही क़रीब और उतने ही समान थे। दीवाली मनाकर कर्ण मथुरा के लिए निकल पड़ा वहाँ उसे चार दिन बिताने थे, अपनी संस्था और एक स्कूल के साथ। जब उसने यह बात बताने के लिए मैत्री को कॉल किया तो उसे केवल ही एक ही शब्द सुनने को मिला और वह था 'धोखेबाज'
             
अपने काम और व्यस्तता के सारे विवरण देकर भी, कर्ण के सारे तर्क मैत्री की ज़िद के आगे फीके ही लग रहे थे, उसे भी और मैत्री को भी। ख़ैर, कर्ण और मैत्री ने अपने तरीकों से उस वक़्त में न होने वाली उस मुलाक़ात को जीया और ज़िन्दगी के घोड़े दौड़ाते हुए एक बार फिर अपने अपने मुकामों पर पहुँच गए। कर्ण ने मथुरा का अनुभव साँझे तौर पर चार क़रीबी दोस्तों के साथ बाँटा और उनके साथ अपने रिश्तों को मजबूती दी। मैत्री ने जब यह सब फेसबुक के द्वारा जाना तो उसे उत्सुकता हुई कि कर्ण की जबानी ही वह सारा किस्सा सुने लेकिन न जाने क्या सोच कर उसने इस पर अमल नहीं किया। कर्ण अपने आगामी कार्यों की तैयारियों में व्यस्त होता चला गया और मैत्री अपने कामों की फ़ेहरिस्त के लंबा खींचते चले जाने की वजह से। एक शाम जो थोड़ी फुरसत से कर्ण से मिलने आई थी और सारे लम्हों, यादों का बहीखाता उसे दिखा रही थी तभी कर्ण का फोन बजने लगा, मैत्री ने उसे कॉल किया था और इसके चलते कर्ण को शाम के साथ वाली अपनी मुलाक़ात को अधूरा छोड़ना पड़ा लेकिन वह उदास न हो इसका ख़याल रखते हुए कर्ण ने शाम को एक ग़ज़ल तोहफे में दे दी। यही ग़ज़ल जब मैत्री ने सुनी तो वह ख़ुशी के मारे फूली नहीं समाई, और दोनों के हाथों से उनकी बातचीत के सिरे फिसल गए। कर्ण ने अपने कुछ बेतरतीब ख़यालों को मैत्री के साथ बाँटा और उसने तपाक से उन्हें उड़न छू कर दिया, मैत्री हमेशा से कर्ण को ऐसी ही दिखी जैसे वह उसे आज देख रहा था, जब से वह उससे मिला था। मैत्री ने लेकिन बातचीत के अंत में कर्ण को ख़ुशख़बरी देते हुए कहा कि वह अगले कुछ दिनों में उससे फिर मिलने आ रही है और उसे यह भी याद दिलाया कि किस तरह कर्ण ने उसे पिछली बार की मुलाक़ात में हुए वादे के नाम पर उसे धोखा दिया था। कर्ण मैत्री को सुनता रहा और उसकी हर बात पर मुस्कुराता रहा, अंत में उसने मैत्री को शुक्रिया कहा और अपने फोन को गहरी नींद में सुला कर, ख़ुद मुस्कुराते हुए अपने कमरे की छत पर टहलने के लिए चल दिया।
                                                                                              - कमलेश

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