तुम, मैं या वक़्त?

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मुझे नहीं पता कि मैं क्या दे सकता हूँ तुम्हें, लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि अगर देखोगे मेरी आँखों में कभी जो उम्मीदों के साये के साथ तो वहाँ तुम्हें इतना तो हौसला मिल जायेगा कि मैं खड़ा हूँ वहीं जहाँ तुम मुझे अपने लिए देखना चाहते हो। ज़िन्दगी को इस तरह जीना की उसका ख़ुद का मन करे कि वह तुम्हारे इर्द गिर्द हमेशा ही घूमती रहे जिस तरह तुम अपने प्रेम और जीवन के आसपास घूमते हो। बहुत आसान होता है किसी की ज़िन्दगी में अपने लिए एक जगह बना लेना लेकिन उस जगह रहकर भी सामने वाले शख्स़ को उसकी जगह और उसका वक़्त नियत समय पर देते रहना बहुत कठिन है। मैं देखना चाहूँगा तुम्हें उसी तरह अपने मुक़ाम पर बैठे हुए जिस तरह मैंने देखा था पहली बार एक तितली को फूल पर बैठे हुए, मेरा प्रेम तुम्हारे रास्ते में उतना ही आड़े आएगा जितना कि बुद्ध का अपनों से किया प्रेम आया था उनके निर्वाण के रास्ते में। तुम देखना किसी रोज़ शांत नदी को, जब तुम्हें लगने लगे थकान इन सारे कामों और यात्राओं से जो तुम इतने वर्षों से करते जा रहे हो, तब मैं तुम्हें देखूँगा उस नज़र से जिसमें तुम ख़ुद को ढूंढने की छवि देख पाओ, मैं छोड़ दूँगा वो सारे ख़त अधूरे जिनमें मैंने तुमसे कोई ख़्वाहिश जताई हो या तुमसे माँगा हो समय दो पल को बांटने का। तुम चाहोगे तो हम ख़ुशी-ख़ुशी नदियों के पानी को पैर डुबो कर रोकने की ज़िद करेंगे और बादलों से झगड़कर बारिशों पर अपना हक़ जतायेंगे। मैं चुन लूँगा वो रास्ते जिनमें से कोई भी लौटकर न आता हो और दे दूँगा तुम्हें वो सारे पते जो मुझे तुम तक फिर कभी भी पहुँचने न दें। ये दुनिया दिखती है जितनी सीधी तुम-को चलते हुए, रुक जाने पर उतनी ही पेचीदा लगने लगेगी और तब तुम रुकना उस आम के पेड़ के नीचे ताकि वहाँ खेल रहा बच्चा तुम्हें पीला सके अपने हाथों से पानी, उस बच्चे की आँखों में आँखें डालकर कोई नहीं देख पाया आज तक, अगर तुमने कोशिश की तो उसकी आँखें तुम्हें मेरी याद दिला सकती हैं।
       यह ख़त श्याम ने देव-कन्या के लिए लिखा, लेकिन देव-कन्या कभी भी इस ख़त को पढ़ नहीं पाई क्योंकि श्याम ने कभी इस ख़त को कागज़ पर उतार कर रख देने की ज़हमत नहीं उठाई, वह हमेशा यह सोचता रहा कि जितना मैं कह देता हूँ, बातें कर लेता हूँ उतने से देव-कन्या को सब कुछ समझ आ जाया करता है। यह बात सच भी थी, यह भी उतना ही सच है कि जो बातें कही नहीं गई केवल वही आज तक ज़िन्दा हैं, जो शब्द लिखा नहीं गया कभी भी किसी भी भाषा की किताब में या उसकी व्याकरण में केवल उसकी का अस्तित्व है इस ब्रह्माण्ड में। देव-कन्या और श्याम ने पहली मुलाक़ात के ७ महीने पूरे कर लिए थे और अब वह फिर मिल रहे थे, देव-कन्या के जन्मदिन पर जोकि फरवरी में पड़ता है, आख़िरी मुलाक़ात के वक़्त जो वादे नहीं किये थे उन्होंने एक-दूसरे से, उनको दोनों ने बखूबी निभाया था। वादे आपको प्रेम महसूस-ने नहीं देते इसलिए उसका ज़िक्र न किया जाए तो ज्यादा बेहतर है। देव-कन्या श्याम को इतनी ज्यादा ख़ुशी के साथ मिली की उसके सामने गुजरता हुआ वक़्त ठहर गया, जो तोहफ़ा श्याम लेकर आया था उसने कभी भी उसे शक्ल देने की कोशिश नहीं की थी, उसे जो कुछ अपने इर्दगिर्द बिखरा हुआ दिखाई पड़ा बस वह उसे समेट कर देव-कन्या के लिए ले आया था। यह मुलाक़ात जितनी खुश-नुमा और रंगत भरी थी, उतना कोई रंग कभी भी नहीं हो पाया, लम्हें देव-कन्या के हाथों में आकर ऐसे रुक गये जैसे किसी बच्चे ने उड़ती तितली को अपनी हथेलियों के बीच रोक लिया हो। इस मुलाक़ात का अंत दोनों ही नहीं जानते कि वह कैसे आगे जाने वाली है, इसलिए इसे उन दोनों की इच्छाओं पर छोड़ना ज़्यादा सुखद होगा। लेकिन इसका अधूरा छूटना इसलिए भी अच्छा है कि पाठकों की उम्मीद और उत्सुकताओं को रौंदते हुए यह मुलाक़ात लेखक और पाठक दोनों के हाथों से फ़िसलकर केवल और केवल इसके किरदारों और वक़्त के हाथों में है। और एक बात तो जग ज़ाहिर है कि पूरी होने पर कोई भी मुलाक़ात, मुलाक़ात नहीं रहती।
                                                                                                   -  कमलेश

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