अतीत की खिड़की में - १


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सि
तंबर एक ऐसा महीना है जिसमें यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है कि अगले पल क्या हो सकता है या फिर यही उत्सुकता कोई चोट खाकर हमेशा के लिए कोने में दुबककर बैठ जाती है। हीर को अपना शहर छोड़े 20 दिन हो गए थे और वह अब तक अपनी नई जगह पर बहुत ही अच्छे से रच बस गई थी, लेकिन हीर ने एक काम को उतनी ही शिद्दत से करना जारी रखा और वह था अपने कामों से इश्क़ और सागर का ख़याल। सागर से पहली बार मिले तीन महीने बीत चुके थे लेकिन अब भी वह मुलाक़ात कल ही घटित हुई किसी ताज़ी घटना सी लगती थी। सितंबर सागर के लिए ढेर सारी सौगातें लेकर आया हुआ था और उसी की आवभगत के चलते सागर को बहुत ही कम समय मिल पा रहा था, अपने दिल की बातों को हीर से हर्फ़ दर हर्फ़ साझा कर देने के लिए। आधा बिता हुआ सितंबर जो ठंडक और उमस देता है उससे फरवरी और अप्रैल के मिले जुले मौसम का माहौल बन जाया करता है, ज़िन्दगी भी ऐसे ही किसी आधे सितंबर में हमें उठाकर कभी फरवरी तो कभी अप्रैल के अनुभव करवाती है।
                   
सागर को 18 सितंबर को अचानक राँची जाना पड़ा क्योंकि वहाँ एक अवसर और कई सारी नई दोस्तियाँ उसका इंतज़ार कर रही थीं। उस रात हीर ने सागर से बात की और जो उन दोनों ने महसूस किया उसे शब्दों की शक़्ल देना बेईमानी ही होगा इसलिए वहाँ का रुख़ करने से बेहतर है कि कहानी को ही आगे बढ़ा लिया जाए। कुछ कहानियाँ बगैर शब्दों के आगे बढ़ना जानती हैं उन्हें लेखक के बीच-बचाव और लगातार आवाजाही से कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी राँची की यात्रा और उसके साथ एक गहरा अनुभव समेट कर आया हुआ सागर कुछ कान तलाश रहा था और वे कान उसे मिले हीर के ही रुप में, दोनों की बातचीत का केंद्र केवल बदलाव के क्षेत्र की समस्याएँ नहीं थी लेकिन उनकी बातें इन समस्याओं से अजनबी भी नहीं थी। अपनी यादों और बातचीत का पुलिंदा ढोते हुए सागर के अंदर सितंबर ख़त्म हो जाने का एहसास न के बराबर बचा हुआ था और हीर हर दिन के 24 घंटों को ऐसे जीने लगी थी मानों सितंबर ही जीवन में उपलब्ध एक मात्र महीना है जिसमें जीवन का अस्तित्व संभव है। अपनी दूरियों और नज़दीकियों को कुछ कॉल्स और संदेशों में क़ैद करके रखना हीर को सागर के इतिहास की खिड़की में झाँकने जैसा प्रतीत हुआ जिसकी उसे धुंधली शक्ल हमेशा से ही सागर की आँखों में दिखाई पड़ता था और अगले दिन हीर को एक कविता अपने व्हाट्सअप पर पढ़ने को मिली जो सागर और उसके इतिहास के साथ हीर के वर्तमान के तारों को जोड़ती हुई सी दिखी। हीर को इस कविता के सन्दर्भ से प्यार हो गया शायद वह यही खिड़की थी जो ख़ुद के पल्ले पर हीर की नज़र पड़ने का इंतज़ार कर रही थी और जिसकी अंतिम पंक्ति यह थी कि कहीं तुम मेरा अतीत तो नहीं हो गई!
                                                                                                             - कमलेश

टिप्पणियाँ

  1. कभी-कभी बाते समझ आना बन्द हो जाती है, परंतु मेहसूस होने लगती है!!
    शायद यही उत्तम लिखावट को दर्शाता है!
    भाषा और भाव पर पकड़ मज़बूत है

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