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दिसम्बर

कहीं कम्बल को तरसता है कहीं रोटी के लिए लड़ता है, कभी उतर आता है सड़कों पर किसी निर्भया के इंसाफ़ के लिए, खंगाल लेता है सारे ही जोड़ 'गर झुलस जाता है कभी गैस से। टूट पड़ता है किसी नापाक पर उसकी अक्ल को ठिकाने लगाने, निकलता है अपने घर से बाहर भी किसी अनजान का दामन थामने, बहक जाता है कभी कभी किसी से उठकर मंदिर/मस्जिद तोड़ देता है। लग खड़ा होता है कभी कतार में किसी की दिमागी हालात ठीक न हो तो, बहुत ही जल्दी बदल लेता है पर रास्ते जब भी ज़रूरत महसूस कर लेता है, हुक्मरानों फिर से वही वक़्त है देश में यहाँ हर दिसंबर एक जैसा नहीं होता।                                              - कमलेश

अनुभव और आवश्यकताएँ

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नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही, नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही|                                                - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़  Source - Parwarish Cares हाल ही में मैं 'लैंगिक साक्षरता' पर एक प्रशिक्षण में शामिल होने का अवसर मिला। जिसमें टीम आओ बात करें के लिए जुटे प्रतिभागियों के साथ हम सबने बहुत सी यादों और एक वातावरण को सबके साथ सह-निर्मित किया। उस वातावरण से ऊपजे माहौल में लोगों को 'सेक्स', 'यौन शोषण' और हमारे समाज की निषिद्ध चीजों के समूह पर बहुत ही आराम से बात करते देखना एक सुकून देने वाला अनुभव भी है। आओ बात करें की टीम ने मुझे अपने स्कूल शिक्षा के वर्तमान पाठ्यक्रम में 'सेक्स-एजुकेशन' और 'वैल्यू-बेस्ड-एजुकेशन' को समाहित करने वाले अपने विचार पर दृढ़ रहने का हौसला दिया है। हमारे समाज के कुछ सवेंदनशील लोगों द्वारा समय की आवाज़ को सुना जा रहा है और वे इस पर काम भी कर रहे हैं लेकिन समय की आवाज़ सुनना बाकियों के लिए भी आवश्यक हो गया है। हमें इस समय में खुद से एक प्रश्न पूछने की जरूरत है कि "क्या 'सेक्स' और '

अँधेरे में तुम

तराशता है जुगनू अपने पंख रात की ख़ामोशियों से, फिर ढलक जाते हैं किसी की पलकों से आँसू जब रात सीढ़ियाँ चढ़ रही होती है। मेरे शहर के कंधों पर वज़न बढ़ जाता है रात के होने का, जब तुम देखती हो आसमान खिड़की से आते रात के कालेपन में। चाँद अभी तक दिखाई नहीं पड़ा! रात के आँसू छिपाने गया होगा, तुमने देखा है कभी अपनी आँखों को रात के चाँद से पनपते अँधेरे में?                                     - कमलेश

काफी नहीं होगा

मेरे आसुंओं पर बड़ा देना यूँ रुमाल काफी नहीं होगा, हर बार की तरहा मेरे ग़म बाँट लेना काफी नहीं होगा। वक़्त बाँटने की कीमतें आसमान छूने लगी हैं अब तो, सिर्फ एक शाम के लिए यहाँ आना काफी नहीं होगा। बन्दिशें तमाम लगा दी हैं इस ज़माने ने मोहब्बत पर, अब एक ही बार इश्क़ में डूब जाना काफी नहीं होगा। तुम खड़े तो हो कब से मेरे इंतज़ार में उस पीपल के तले, पर मिलते ही लग जाना गले इस दफ़ा काफी नहीं होगा।      मैं ज़मीं पर बैठकर आसमान छूने की फिराक़ में हूँ, मुझको छोड़ देना पंछियों के बीच काफी नहीं होगा। ख़बर पढ़कर जब तुम्हारा दिल दहलने लगे हर रोज़, तो चाय पर बैठकर बतियाना फिर काफी नहीं होगा। सोचते हो ‘गर कि डोलती हुई कुर्सी अब गई के तब गई, तो खिड़कियों से देखते रहना तमाशा काफी नहीं होगा।  अपनी ज़िन्दगी के किस्से इत्मीनान से सबको सुनाने वालों, तुम्हारे तकाज़े की छाँव में बिठा लेना अब काफी नहीं होगा।  बाँट दिया है ख़ुद को कितने ही टुकड़ों में मैंने कब से, चार कंधे और एक कफ़न मेरे लिए काफी नहीं होगा।                                                             - कमलेश

तुम ख़ुद एक भाषा हो

    कुछ बातों को मुझे लिखने की ज़रूरत नहीं क्योंकि मुझे उनका साथ होना ज्यादा अच्छा लगता है ऐसी बातें लिख देने से मर जाया करती हैं। मैं तेरे किस्से कभी कभार लिखता हूँ इस आस में कि लिखने पर उन्हें मेरे जीवन का अमरत्व मिल जाएगा। तुम किसी हवा के झोंके सी हो जो बहुत ही धीरे से गुजरता है लेकिन हमेशा के लिए रह जाने वाली छाप छोड़ जाता है।       पहली ही मुलाक़ात से हमने काफी कुछ बाँटा जिसमें चाय, बिस्किट, खाना और ढेर सारी बातें शामिल हैं। तुम इस तरह से मेरे जीवन में घुली हो जैसे पानी में शक्कर, पिछले कुछ वक़्त में तुम्हारे बाजू में बैठकर तुमसे बतियाना मेरे ढेर सारे सवालों और उलझनों को सुलझा देने में इतना कारगर हो सकता है, यह मुझे लिखने के कुछ समय पहले ही मालूम हुआ। सफ़र के दौरान हुई बातचीत में सबसे खूबसूरत लम्हें वही थे जब मैं कविताएँ पढ़ रहा था और तुम उन्हें आने वाले समय में सँजोने के लिए रिकॉर्ड कर रही थी।              मेरी थकान को अपनी बातों और मुस्कुराहटों से हर लेना और कविताओं के जवाब में नज़रें चुराना, पास बैठकर भी कोई कविता सुनकर खो जाना और दूर जाने के बाद भी किसी तस्वीर के रास्ते वापस करीब आ

खुशियाँ, हम और दुनिया

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आकस्मिक चीज़ें जितनी खुशियाँ देती है, वह खुशी निर्धारित चीजों से कभी नहीं मिल पाती। 2 नवंबर को मिले एक व्हाट्सअप मैसेज ने पिछले 5 दिनों में जितनी खुशियाँ, हँसी और यादें दी हैं वह मुझे ढूँढने पर तो कभी भी नहीं मिलती।                              मैं पिछले दिनों दीवाली पर घर गया था वहाँ प्रदूषण, न्याय और राजनीति जैसे मुद्दों पर काफी चर्चा का हिस्सा बनने का सौभाग्य मिला, क्योंकि ये चर्चा युवा दोस्तों और गाँव के लोगों के बीच बैठकर हुई। ऐसी घटनाओं से यह विश्वास और भी गहरा जाता है कि बदलाव किया जा सकता है और वह भी लोगों के साथ मिलकर, युवा दोस्तों में बहुत ऊर्जा है जिसका उपयोग वह सही दिशा में करना चाह रहे हैं, मार्गदर्शन जिस तरह अपने सहयोगियों से मुझे मिलता रहा है यह कवायद अब गाँव में भी शुरू हुई है कि जिस किसी को भी कोई सहयोग चाहिए वह सबसे संपर्क स्थापित करे ताकि समय पर काम हो सके। गाँव की बदलती हवा ने मुझे अपने सपनों और ज्यादा दृढ़ता से देखने की हिम्मत दी है।         Source - Labhya.org           गाँव से दिल्ली की वापसी में मैं पिछले 4 दिन मथुरा के पानीगाँव में बिताकर लौटा हूँ,

तेरा होना

जितनी बार में चला तन्हा उन रास्तों पर जो तेरा पता बताते हैं, तेरी खुशबुओं को वहाँ महकते पाया है; ठहर के जहाँ तूने कभी खनकाई थी अपनी हँसी जम जाते हैं मेरे पाँव वहीं जैसे तूने ठहरने के लिए कहा हो। तेरे बिन सुना सा लगता है आँगन मेरे आशियाने का, जो तेरे होने से चहकता रहा है; बिन किसी वादे के चल देना बनकर हमसफ़र इतना आसान तो नहीं ही होता, जितनी आसानी से तुझे पा गया था मैं। हर वो चीज़ जो हमारे साथ रही मुझे कारगर लगती है अब, ख़ुद को समेटने के लिए; इस दिवाली मैं उन सब को कुमकुम लगाऊँगा।                                         - कमलेश

हमारी जीवनशैली और दुनिया

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Source- Khabarindia.com यह ख़बर लगभग हर उस व्यक्ति को पता होगी जो खबरें पढ़ता है कि दिल्ली में १ से १० नवम्बर तक आपातकाल (प्रदुषण का आपातकाल) घोषित किया गया है क्योंकि वहाँ की हवा दुनिया की सबसे ख़राब हवा है जोकि न तो सुबह की सैर के लायक है और न ही एक गहरी साँस लेने के | इसका मुख्य कारण है आसपास के राज्यों में जलाये गए फसलों के अवशेष और वहाँ के वाहनों का धुआँ, फिर भी लोग केवल एक दूसरे पर आरोप लगाते दिखाई पड़ते हैं | जानकारी के लिए यह बता दूँ कि २ करोड़ की दिल्ली की आबादी के लिए १ करोड़ वाहन हैं, एकमात्र शहर जहाँ लोग स्टेटस के लिए निकल पड़ते हैं सड़कों पर बगैर यह सोचे कि कल क्या होगा!  हवा की खराब हालत को देखते हुए ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में केवल २ घंटे पटाखे जलाने का  आदेश दिया है और बाकि राज्यों से यह अपील की है कि वह कम से कम प्रदुषण की ओर कुछ कदम जरूर बढ़ाएं | Source-Bharatkhabar.com                          हर वह शख़्स जो इस अपील या आदेश जिस तरह भी इसे देखते हैं, यह जान लें कि केवल प्रदुषण से ही भारत में हर वर्ष 13.56 लाख लोगों की मौत हो जाती है जबकि 2015 में यह आ

मैं चाहता हूँ

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मुतमइन रहता था एक शख़्स, जब अपनी आँखों के आगे वह देखता था घने दरख़्त औ' सब्ज़ ज़मीं, एक रात थोड़ी ठहर कर गुज़री ऐसे उसे कोई सपन तक न आ पाया, सुबह तक दरख़्त औ' ज़मीं गर्दन तलक पानी में डूब चूके थे। गुहार लगाता भी तो वह किस से? जो थे सुनने वाले उन्हीं ने डैम के दरवाज़े साहब के कहने पर खुलवाये थे। Source - Imperiya.by अपने मुस्तक़बिल पर रोती है इक औरत पुराणों में जिसको वसुधा कहा है हमने, एक बार भी नहीं सोचते अब हम कि वासना का हमारी अंजाम किस दिशा से लौटकर आने वाला है! दिल थाम कर बैठिये अभी तो दिल्ली धुआँ हुई है, कल समंदर आपके घर का भी पता पूछने आएगा। वह रो रहा था कल नदी के किनारे बैठा कि मंदिर का फैसला जनवरी में आएगा, उसे तो यह तक याद नहीं कि ख़ुद उसने अपने पिता से ठीक से बात कब की थी? नाम बदलता है कोई करोड़ों में मेरे शहर का, जाकर देखे तो सही कोई रात में जे.जे. कॉलोनी का मंज़र, मज़ाल जो अगली सुबह हलक़ से निवाला उतर जाए! एक बिल्ली को पत्ते खिलाकर पालता है ख़ुद लोथड़े खाता इक परिवार, मैं जानता हूँ जिस दिन वह बंदर बच्चे के हाथ से रोटी छीनकर भागेगा, तब समझ में

एकता दिवस और हम

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Source - Times Now सरदार वल्लभ भाई पटेल की शख़्सियत पर मुझे कोई शंका नहीं लेकिन उनके नाम के तले जो पाखण्ड हो रहा है उसके बारे में हमें एक दफ़ा तो ज़रूर सोचना चाहिए। एक तरफ जहाँ 24 करोड़ लोग भूख, पानी, स्वास्थ्य की सुविधाओं से वंचित हैं सरकारें अपना अहं संतुष्ट करने के लिए प्रतिमाएं बनवा रही हैं, जी हाँ मैं गुजरात की एकता की प्रतिमा और महाराष्ट्र में कुछ समय में बनाई जाने वाली शिवाजी की प्रतिमा और साथ ही मंदिरों, मस्जिदों और अन्य धर्मस्थलों के बनाये जाने की ख़िलाफ़त करता हूँ। 3000 करोड़ रुपयों की रकम जो लग चुकी है और वह जो आगे खर्च की जाएगी, हर तरह से उन 24 करोड़ लोगों तथा 134 करोड़ देशवासियों के हित में उपयोग की जा सकती थी। प्रतिमा बनाने के निर्णय का समर्थन करने वाले एक दफ़ा वहाँ जाकर देख आएं कि क्या मंज़र है! वहाँ के रहवासियों को कितनी तकलीफें उठानी पड़ी हैं, आज के कार्यक्रम के लिए नदी को पानी से भरा हुआ दिखाना है जिसकी कीमत वहाँ के छोटे किसान चुकायेंगे, क्योंकि उनको बग़ैर किसी पूर्व जानकारी के डैम से पानी छोड़ दिया गया है, अब इतना तो सोच ही लीजिए कि खड़ी फसल या सब्जियाँ पांच से छः दिन पान

हम

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Source - Bharatkhabar.com पिछले हफ्ते गांव घूमने के लिए गया हुआ था, इस बार चुनावी चहल पहल के साथ साथ और भी कई सारी चीज़ों ने ध्यान आकर्षित किया। कुछ लोगों से उनके बच्चों के भविष्य के बारे में बातचीत हुई, जिसमें उन्होंने शिक्षा से उपजी बुराइयों और उनसे जुड़ी नकारात्मक चीज़ों का हवाला देते हुए यह ज़ाहिर किया कि वे अपने बच्चों को आगे की शिक्षा के लिए नहीं भेजना चाहते। गांव के लोगों का शिक्षा व्यवस्था के प्रति ऊपजता यह अविश्वास बेहद गंभीर विषय है, जिस पर हमें यानि कि युवा वर्ग को मंथन करने की ज़रुरत है कि किस तरह इस अविश्वास का समाधान किया जा सकता है और सरकार को हम किस तरह से प्रभावित कर सकते हैं! इसके बाद मेरी बातचीत के विषयों में राजनीति और सरकार की विभिन्न योजनाओं का भी हिस्सा रहा, जिसमें लोगों ने राजनीतिक दलों और साथ ही सरकार के प्रति अपने मतों को ज़ाहिर किया जिनमें उनका अविश्वास व्यवस्था के प्रति यहाँ भी झलका,अपनी आकांक्षाओं का अधूरा रहना किसे नहीं खलता! जिस तरह से लोगों ने सरकार की विभिन्न योजनाओं और कलापों का घटनाक्रम पिछले कुछ समय में देखा है,उनकी चिंताओं की फ़ेहरिस्त बढ़ती ही गयी

सब का मैं

चंद हफ़्तों से मेरी नींद ख़ुद टूटने की आदी हो गयी है, कुछ ख़यालों को मेरे कान सुनते हैं जो कभी मेरे नहीं रहे, फिर भी उनकी खनखनाहट सुनता हूँ मैं जैसे किसी बच्चे की भूखी आवाज़ में, खनकता है पांच रुपए का सिक्का। मेरी कमीज़ पर अब कोई रंग नहीं चढ़ता, जो डुबोई थी मैंने नीले रंग में पिछले शनिवार, टकरा जाया करता हूँ भरे बाज़ार अपनी ही शक़्ल के किसी इंसान से, आईना चाहे कुछ भी दिखाए मुझे एक ही सूरत दिखाई पड़ती है। पुकारता हूँ जब कभी में किसी को उसको नाम मेरा ही सुनाई देता है, पढ़ता हूँ गीता में विराट स्वरूप की व्याख्या तो मेरा ही वर्णन लिखा होता है, मुझे ऐसा लगता है कि यह सारी घटनाएं मुझसे मेरा 'मैं' वापस ले रही हैं, और मैं थोड़ा थोड़ा कर के सब का 'मैं' होता जा रहा हूँ ।                                  - कमलेश

किसान

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Source - IndiaTv पहली बरसात में भीगी माटी जान से भी ज्यादा प्यारी होती है उसे, जब स्कूल से बेटी के लौटने पर उसका माथा चूमता है वह, वैसे ही चूम लेता है खेत को। चाँद के ग़ुम हो जाने पर छाया सूनापन उसके होंठो से दिखाई पड़ता है, हर दफ़ा जब फैक्ट्रियाँ उसके हिस्से की बारिश और सर्दी छीन लेती है, वह चाहता है इतना कि एक चादर में उसके दोनों बच्चे चैन से सो सकें। परेशान जब हर तरफ से हो वह निकलता है अपने हक़ के लिए, बाज़ की तरह झपट पड़ते हैं सारे ठेकेदार उस पर, शायद वो नहीं जानते रोटी गेहूँ से बनती है; उसने नहीं भरा धान ज़रुरत से ज्यादा कभी भी अपनी कोठरी में, नहीं बहाया पैसा कभी ही फिज़ूल। एक मैना ढूंढ रही है वीराने में अपने घोंसले के लिए एक पेड़, वो ढूंढता है अपनी खोई आवाज़ जिससे उसे उम्मीद है कि वह पेड़ के झूले की रस्सी को, फंदे में बदलने से रोक लेगी।                                - कमलेश *जरूरी है कि अब हम अपने खाने के हर ग्रास को निगलने से पहले एक दफ़ा सोचें।*

पता

मैं भविष्य को नकार दूँगा जब कोई लिखेगा मुझे ख़त, मेरा अतीत हर उस दरवाज़े पर दस्तक देने के लिए आएगा; जहाँ मैनें कभी ठहरकर उसके वर्तमान के वर्तमान में, अपना पता छुपा दिया था।                                 - कमलेश

जब इश्क़ उतरने लगता है

उनींदी आँखों से सपने चूती उम्मीदें जब तकियों पर सिर पटकते हुए, अपनी मौत का रोना रोते रोते थक जाती है; तब बिस्तर की सिलवटों की ज़ंजीरें ख़ामोशी में चीख़ती बातों को, वैसे ही निगल जाती हैं जैसे जुगनुओं की ज़िंदगियाँ निगलती जाती हैं रातें। मैं सोता हूँ बायीं करवट जब भी तो दायीं आँख सपनें नहीं हकीक़त देखती है हर बार, लेकिन यह दृश्य उलट देने पर पहले जैसा तो कतई न रहे ऐसी मेरी ख़्वाहिश है, लेकिन आँखों से कोई परछाई लटकती है, जब कोई सामने नहीं होता। रात अपनी आपबीती सुनाती है जब उसके दाहिने बैठता हूँ मैं किसी दिन बड़े इत्मिनान से, मैं उसे अपने जैसा ही पाता हूँ सकल चराचर में फैलता हुआ, ख़ामोशी की चिल्लाहट में फिर कोई आवाज़ टपकती है पलकों से, जब इश्क़ उतरने लगता है।                                  - कमलेश

मेरे तीसरे से पहले

आंखों की थकी पलकों पर सपनों की चिता सुलगने से पहले, उन्हें अपने बच्चों के रंगीन कपड़ों पर टांक देना पूरी नज़ाकत से, जिससे उसकी ख़ुशी वे ढूंढ सकें। होंठो पर आई प्यास के कारण कोई मुफ़लिस खप जाए उससे पहले, कुछ पेड़ों को रहने देना घर के पास जो पहुंचा सके तुम्हारा संदेश, समय आने पर बादलों के घर। जिम्मेदारियों का बोझा ढोते हुए किसी कंधे के थाली में गिरने के पहले, उसके सिर पर अपने हाथों की छांव लगा दी 'गर तो थाली महक उठेगी। हथौड़े की चोट से बिखरते घुटनों पर, मौत होते घाव के पकने से पहले बना देना मानवीयता का घेरा, जो रोक सके उसे यमराज के प्रहार से। लेकिन इस बारे में, मैं हमेशा तुम्हें मना ही करूंगा जब तक उसकी दरकार न हो; कि मेरी हथेलियों की नरमाहट और मेरी हड्डियों की गर्म राख, जिन पर कोई जी भर कर रोएगा; मत उठाना मेरे तीसरे से पहले।                                        - कमलेश

योजनाएं, हकीक़त और सरकार

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पेट्रोल और डीजल के दामों का घोर विरोध कर जनता का मन 2014 में पूरी तरह मोह लेने वाली सरकार के राज में दोनों की कीमतें पिछले 7 सालों में अपने उच्चतम स्तर पर हैं। कर वसूलने के नाम पर अंधाधुंध वसूली और लूट मचाने का सरकारी तरीका ईजाद किया है सरकार ने, केंद्रीय कर असल कीमत का 24-26% और राज्य कर 20-25%, लेकिन इन करों की उपयोगिता का कोई प्रमाण सरकार अब तक नहीं दे पाई है। न ही इनको जीएसटी से बाहर रखने का उचित कारण अभी तक जनता के सामने आया है। हाल ही में एलपीजी सिलेंडर के बढ़ते दाम फिर से इन्हीं सवालों को उठाते हैं कि क्या देश की इकोनॉमी का बढ़ता फिगर ही सब कुछ है, उसके आगे आम आदमी की जेब, मजदूरों की रोटी और किसानों की ज़िन्दगी कोई मायने नहीं रखती?                साल के पहले क्वार्टर में जीडीपी अपने ऊंचे स्तर पर पहुंची है जिसे सब के द्वारा देश का विकास सूचक करार दिया जा रहा है, तो फिर रुपए के गिरते दाम किस की तरफ इशारा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब शायद सबके पास है लेकिन कोई भी उसे स्वीकारने को तैयार नहीं, रुपए और डॉलर के युद्ध में रुपए को देश की साख बताकर सबका दिल जीत लिया था तब वर्तमान सरकार

गुमनाम

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Source - wallhere.com तेरी जानिब जब भी कदम बढ़ते हैं कुछ दूर चलने पर अचानक राहें अजनबी हो जाती है ; फिर भी कभी, जो पहुंच जाऊं तुम तक इन गुमनाम राहों से, तो मुझे तुम अपने पास रख लेना, वैसे ही जैसे स्पंज सोख लेता है पानी, और सुनो तुम्हारी आंखों का इंतज़ार होना ख्वाहिश नहीं, चाहत है कि तेरे चेहरे की हंसी हो जाऊं । मुझे अपने नज़दीक वैसे ही संभाल कर रखना जैसे लॉकर रुम में रखा जाता है किसी का सामान, बिलकुल अजनबियों सा गुमनाम ही रखना मुझको तुम, नाम की भीड़ बहुत है इस दुनिया में । कोई पहचान नहीं चाहिए मुझे तुम्हारे करीब जब भी रहूं मैं, मैं नहीं चाहता हूं कि कोई देख ले मुझे तुमको जीते वक़्त, तुझमें से कोई ढूंढ ना पाए मुझको कभी भी, चाहे वो कितना भी अच्छा चोर क्यों ना हो । छुपाओ मुझको अगर तो ऐसे छुपाना, जैसे राम ने अपने वनवास में छुपाया था सीता को ।।                        - कमलेश

दुनिया

छाते को निकाला आज तो पाया कि उसमें जंग लग गई है, घर में रखे बरसाती कपड़े दीमक के खाने के काम आते हैं अब, बारिश और पेड़ रेगिस्तान में पानी की ख्वाहिश से लगते हैं । रहने वालों से ज्यादा इस शहर में चलते हैं सड़कों पर वाहन, सिगरेट नहीं पी कभी भी ज़िन्दगी में पर एक साल से यह शहर हर रहवासी को मुफ़्त देता है चालीस रोज़, सांस लेता हूं यहां तो लगता है खाते से 86 रुपए कट गए । पैरों पर चलते थे कभी शाम की रोटी के जूगाड़ के लिए, अब भागते हैं उसे भूल हड्डी के पीछे जैसे भागता है कुत्ता लार टपकाते हुए, हड्डी किसने डाली पता नहीं पर सबकी हड्डियां टूटती जा रही हैं, पानी को 20 रुपए में खरीदता हूं ख़ुद ही खराब करके साफ करने के बाद, पास बहती नदी अब नदी नहीं सबसे बदबूदार नाला हो गई है । स्कूल में कुछ डेस्क खाली दिखती हैं परसों कुछ बच्चे जाम में खड़ी कारों के पास, मंडराते हुए दिखाई पड़े थे न जाने अब वो कहां हैं ! योजनाओं की भूख नहीं है उनको वादों का नाश्ता नहीं करता कोई, दो वक़्त की रोटी और सिर के लिए छत बस यही चाहत लिए फिर रहे हैं सब के सब, ये सब वही हैं जिनकी बेटी बचाओ का वाद

कार और चार सवारी

धान से घिरी हुई एक संकरी सी सड़क पर एक कार धीमे धीमे रेंग रही थी, शायद चालक रेंगना चाहता था या फिर उसके साथी इसलिए सब कार में बैठकर रेंग रहे थे, रेंगना धीमे चलने का पर्याय नहीं है, शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी से कुछ दिन उधार लेकर, यह लोग जब गांव आते हैं तो वहां की भागदौड़ को याद करते हुए, उसका विरोध करने की कोशिश में रेंगना चाहते हैं ताकि किसी ठहराव का हिस्सा बन सकें। ठहराव कोई हकीक़त नहीं है, वह केवल कोरी कल्पना है, जिसे शहर की जेल से भागे कैदी गांव आकर जीना चाहते हैं। जब कार रेंगने से बदलकर चलने लगी तो ऐसा लगा जैसे किसी ने अचानक चल रहे शास्त्रीय संगीत को बदलकर रॉक बैंड बजाना शुरू कर दिया हो। अक्षय ने रास्ते को देखने के बावजूद उसे भूल जाने पर अफसोस जताने के बारे में सोचे बग़ैर बगल में बैठे केशव से रास्ता पूछा, या फिर केशव को साथ ही इसलिए लिया गया था कि वह कार को रास्ता बता सके, क्योंकि कार को रास्ता भूलने का अफसोस ज़रूर था। मेरठ हाईवे पर कार के दौड़ते हुए चढ़ जाने पर वेदांत ने चाहा कि कार की खिड़कियां बंद कर ली जाए, वह बाहर की दुनिया को अपनी दुनिया से एक कांच की मदद से अलग करना चाहता था